साहित्य

#कहानी- घंटी….@संगीता की कलम से

सवेरा होते ही दीप्ति की बंधी-बंधाई दिनचर्या आरंभ हो गई थी. कई बार उसे लगता था, न कभी सूरज उगना छोड़ेगा और न कभी उसकी दिनचर्या बदलेगी. वही फे्रश होकर पति और बेटे का पहले नाश्ता, फिर टिफिन तैयार करना. बीच में मांजी को बैठाकर चाय पकड़ाना और ख़ुद की ठंडी हो चुकी चाय को एक घूंट में गले से नीचे उतारकर सवेरे की चाय की खानापूर्ति करना. इन सबमें एक सेकंड भी इधर-उधर होना मतलब स्कूल या ऑफिस में से किसी एक को देरी होना.

दीप्ति ने परांठा सेंकने के लिए तवा चढ़ाया ही था कि मांजी की घंटी बज गई. ‘मां, दीप्ति टिफिन तैयार कर रही है. अभी आती है.’ अजय ने मोबाइल पर नज़रें गड़ाए हुए ही चिल्लाकर जवाब दिया. मोबाइल के नीचे ताज़ा अख़बार भी इस उम्मीद में खुला पड़ा था कि कोई उस बेचारे पर भी नज़र मार ले, लेकिन आज भी अजय की मोबाइल पर फिसलती निगाहों ने नाश्ता समाप्त होने पर उसके पन्ने पलटकर उसे हमेशा की तरह कृतार्थ मात्र कर दिया. जिसे सही मायनों में उसकी कद्र थी और जो उसका एक-एक अक्षर पढ़ना चाहती थी, वह तो सब कामों से निवृत्त होते-होते इतना थक जाती थी कि पढ़ने की ऊर्जा ही समाप्तप्राय हो जाती थी. देर रात गए कभी लेकर बैठती भी, तो अजय यह कहकर रखवा देते, “अभी कुछ देर में नया आ जाएगा, वही पढ़ लेना. सो जाओ और सोने दो.”

मांजी की घंटी फिर बजी, तो अजय उठ खड़ा हुआ. दीप्ति ने उम्मीद से उस ओर ताका. किंतु निराशा ही हाथ लगी. अजय टिफिन लेकर निकल चुका था. दीप्ति झुंझला उठी. हर काम की ज़िम्मेदारी उसी की क्यों समझी जाती है? अजय भी तो अपनी मां के पास जाकर पूछ सकते थे कि उन्हें क्या चाहिए? और सिर्फ़ पूछ ही क्यों, पकड़ा भी तो सकते थे. दीप्ति को आश्‍चर्य होता. मांजी की घंटी की तीव्रता और पुनरावृत्ति उसे इतना उद्विग्न कर देती है, किंतु अजय के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती. ठंडी चाय का घूंट हलक से नीचे उतारकर दीप्ति मांजी के कमरे की ओर लपकी. ओह, कांपते हाथों से चाय छलककर बिस्तर और कपड़ों पर फैल गई थी. अपराधी-सी गठरी बनी बैठी मांजी को देखकर दीप्ति के दिल में ढेर सारी सहानुभूति उमड़ आई.

“अरे, आप बोल देतीं न कि चाय गिर गई.” मांजी को संभालते दीप्ति अपनी ही अपेक्षा पर शर्मिंदा हो उठी. मां आजकल बोलते हुए इतना अटकने और हांफने लगी हैं कि ख़ुद उन दोनों ने ही उन्हें आवाज़ लगाने की मनाही कर रखी है और समाधान के तौर पर पूजावाली घंटी उनके पास रख दी है.
“आपने चाय पी भी या सारी गिर गई?”
“स…ब…गिर….”

“कोई बात नहीं. मैं दूसरी बनाकर लाती हूं.” मांजी को कांपते हाथों से बिस्तर झाड़ते देख दीप्ति ने उन्हें रोक दिया.

“सुनीता आनेवाली है. अभी सब कर देगी.” पड़ोस से खटर-पटर की तेज़ आवाज़ें आने लगीं, तो दीप्ति ने दोनों कानों पर हाथ धर लिए. उफ़्फ़! एक तो इस रिनोवेशन के मारे नाक में दम है. जाने कब ख़त्म होगा.’ बड़बड़ाती दीप्ति रसोई में जाकर चाय बनाने लगी, तब तक सुनीता आ गई. उसे देखकर दीप्ति के चेहरे पर सुकून बिखर गया.

“चाय गिरा दी है, संभाल ज़रा. मैं दूसरी चाय बनाकर ला रही हूं. अब तू ही पिला देना. उन्हें मत पकड़ाना.” खौलती चाय के साथ बीते समय की स्मृतियां दीप्ति के स्मृतिपटल पर दस्तक देने लगीं. जब दीप्ति इस घर में दुल्हन बनकर आई, तब मांजी यानी सासू मां कितनी फिट थीं. दीप्ति के सुनने में आया था कि शादी की सारी तैयारियां उन्होंने अकेले ही कर ली थीं. पूरे घर की व्यवस्था उन्होंने इतनी चुस्ती-फुर्ती से संभाल रखी थी कि दीप्ति देखकर दंग रह जाती थी. कामकाजी बहू से उन्हें कोई परेशानी नहीं थी. बेटे अजय की तरह वे उसके लिए भी नाश्ता-टिफिन सब तैयार कर देती थीं. दीप्ति को संकोच होता तो वे उसे लड़ियाने लगतीं, “मुझे सास नहीं, अपनी मां समझा कर. मुझे अच्छा लगेगा यदि तू अधिकारभाव से मुझसे कुछ मांगेगी या कहेगी.” अजय तो घर के प्रति पहले ही लापरवाह था. अब दीप्ति ने उसके कपड़े-मोजे आदि निकालने की ज़िम्मेदारी भी संभालकर उसे और भी लापरवाह बना दिया. मांजी शिकायत भी करतीं और बेटे-बहू का प्यार देखकर ख़ुश भी होतीं. उनकी ख़ुशी तब दोगुनी हो गई जब दीप्ति के पांव भारी हुए. दीप्ति तो आख़िरी महीने तक ऑफिस जाना चाहती थी. लेकिन डॉक्टर ने जटिल केस बताते हुए बेडरेस्ट की सलाह दी, तो घरवालों के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गई थीं.
“बेटी, नौकरी ज़रूरी नहीं है. अपने स्वास्थ्य की फिक्र कर. मैं संभाल लूंगी सब.” मांजी ने हौसला दिया था. आरंभ में मेडिकल, फिर बिना वेतन और अंतत: दीप्ति को बेमन से नौकरी छोड़ने का निर्णय लेना पड़ा था.

“प्राइवेट नौकरी तो घर की खेती होती है. जब तू करने लायक हो, दूसरी कर लेना. क्यों चिंता करती है? इस अवस्था में तेरा ख़ुश और चिंतामुक्त रहना ज़्यादा ज़रूरी है.” मांजी की दिलासा और हौसलाअफज़ाई से दीप्ति को तब बहुत सहारा मिलता था. यह शायद मांजी की अतिशय देखरेख ही थी कि इतने जटिल केस के बावजूद दीप्ति सामान्य प्रसव से पार्थ को जन्म दे पाई थी. अभी सब भरपूर ख़ुशियां भी न मना पाए थे कि डॉक्टर ने अगली चेतावनी दे दी. डॉक्टर के अनुसार बच्चा बहुत कमज़ोर था और उसे भरपूर देखरेख की आवश्यकता थी. मांजी ने एक बार फिर कमर कस ली थी. उनकी हिम्मत देख दीप्ति और अजय को भी जोश आ गया था. पार्थ के दो साल का होते-होते डॉक्टर ने उसे भी हरी झंडी दिखा दी थी. दीप्ति ने फिर से नौकरी शुरू करने का मानस बनाना आरंभ ही किया था कि स्वस्थ, हंसमुख मांजी को अचानक ब्रेनस्ट्रोक हो गया. पूरा परिवार हिल गया था. यदि नींव ही डगमगा जाए, तो इमारत का अक्षुण्ण खड़े रहना कैसे संभव है? समय रहते मांजी को चिकित्सा उपलब्ध हो जाने से जान तो बच गई, पर शरीर की सारी ऊर्जा निचुड़-सी गई थी. बिना किसी सहारे के उठना-बैठना भी उनके लिए दूभर हो गया था. हाथ-पांव कमज़ोरी के कारण कांपते रहते थे.

मुंह से कोई शब्द निकालने में इतना प्रयास करना पड़ता कि शरीर पस्त हो जाता. इसके बाद भी निकले टूटे-फूटे शब्दों को जोड़कर समझने में सामनेवाले को भारी मशक्कत करनी पड़ती थी. हर व़क्त मांजी के पास बने रहना संभव नहीं था. निदानस्वरूप पूजा की घंटी उनके पास रख दी गई. पार्थ का नर्सरी में एडमिशन हो जाने से दीप्ति का कार्यभार कुछ हल्का हुआ था, पर मांजी के बिस्तर से लग जाने से उसे कुछ भी सूझना बंद हो गया था. सवेरे उन्हें तैयार करने और एकबारगी खिला-पिला देने के लिए सुनीता नामक नर्स की व्यवस्था हुई, तो दीप्ति को थोड़ी सांस आई. पर फिर भी दिनभर उन्हें संभालते वह बेतरह थक जाती थी. कभी मांजी के हाथ से खाते हुए चम्मच छिटक जाता, कभी पानी का ग्लास खाली, कभी बाथरूम जाने की हरारत, कभी ठंड, तो कभी पसीना… दीप्ति को लगता घंटी आ जाने से मांजी की अपेक्षाएं बढ़ गई हैं. घंटी उनके लिए भले ही राहत लेकर आई हो, दीप्ति के लिए तो सिरदर्द बन गई थी. सोते-जागते उसके कानों में घंटी की आवाज़ ही गूंजती रहती. ज़रा-सा अनसुना करने पर घंटी की आवाज़ तीव्रतर हो जाती और दीप्ति के पहुंचने तक बजती ही रहती. झुंझलाहट से भरी दीप्ति सोचने पर मजबूर हो जाती कि इतना मरियल शरीर, जो कि करवट भी स्वयं नहीं ले पाता, एकाएक इतनी ज़ोर से घंटी बजाने की ताकत कहां से जुटा लेता है? हालांकि यह झुंझलाहट कुछ पलों की ही होती थी. मांजी के पास पहुंचकर, उनकी ज़रूरत जानकर यह सहानुभूति में तब्दील हो जाती थी. एक बार तो मांजी को फिर से हल्का स्ट्रोक आया हुआ था.

डॉक्टर ने ऐसी आपातकालीन स्थिति के लिए एक टैबलेट दे रखी थी, जो तुरंत उनके मुंह में रख देनी होती थी. मांजी को अब ऐसे किसी ख़तरे का पूर्वाभास हो जाता था और वे तुरंत घंटी बजाकर दीप्ति को बुला लेती थीं. इतनी सेवा-सुश्रुषा के बाद भी मांजी की स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हो रहा था, बल्कि स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन गिरता ही जा रहा था. इसके साथ ही तबियत पूछने आनेवाले रिश्तेदारों की घर में आवाजाही बढ़ती जा रही थी. दूरदराज़ से मांजी के भाई-बहन, भतीजे-भांजियां आते, तो स्वाभाविक रूप से घर पर ही रुकते. दीप्ति का कार्यभार दुगुना, तिगुना, चौगुना तक हो जाता. पर स्थिति की नज़ाकत समझते हुए वह सब कार्यभार संभाले हुए थी.

आज तड़के ही भोपालवाले मामाजी-मामीजी को नाश्ता करवाकर, साथ खाना बांधकर रवाना करने के बाद दीप्ति को थकान के मारे चक्कर-सा आने लगा था. आज सर्दी भी कड़ाके की थी. अजय और पार्थ का टिफिन तैयार कर वह फिर से रजाई में दुबक गई. अत्यंत गहरी नींद में उसे मांजी की घंटी बजने का-सा आभास हुआ, तो वह रजाई में और अंदर सरक गई. अजीब है वह भी! सपने में भी उसके कानों में घंटी ही बजती रहती है. लगभग दो घंटे की गहरी नींद लेकर दीप्ति उठी, तो काफ़ी फे्रश महसूस कर रही थी. खिड़की से छन-छनकर आती धूप बेहद भली लग रही थी. एक भरपूर अंगड़ाई लेकर दीप्ति ने बिस्तर छोड़ा. अजय और पार्थ जा चुके थे. पर पूरा घर बिखरा पड़ा था. लेकिन नींद पूरी हो चुकने के कारण आज दीप्ति को झुंझलाहट नहीं हुई. मैले कपड़े मशीन को सुपुर्द करने जाते व़क्त उसने मांजी के कमरे में झांका. उढ़की हुई रजाई में कोई हलचल न देख उसने राहत की सांस ली.

‘आज तो मांजी भी भाई-भाभी को रवाना कर, तानकर सोई लगती हैं. चलो सोने दो. चाय बनाकर ही उठाऊंगी, तब तक सारा काम समेट लेती हूं.’ रसोई समेटी तब तक कपड़े धुल गए थे. उन्हें फैलाकर दीप्ति नहाने घुस गई. ‘कमाल है, मांजी आज अभी तक सो रही हैं. हमेशा तो अब तक घंटी बजा ही देती हैं.’ चाय चढ़ाती दीप्ति ने सोचा, ‘अब तो सुनीता भी आनेवाली है. चलो उसकी भी बना देती हूं.’ दीप्ति ने चाय में पानी डाला ही था कि सुनीता आ गई.

“तुम्हें ही याद कर रही थी. फटाफट मांजी को तैयार कर, तब तक चाय तैयार हुई जाती है.” दरवाज़ा बंद कर दीप्ति प्लेट में रस्क निकाल रही थी कि सुनीता की हड़बड़ाहट भरी पुकार ने उसे चौंका दिया. सुनीता ने नींद में ही मांजी के गुज़र जाने की सूचना दी, तो दीप्ति स्तब्ध खड़ी रह गई.

“प…र अभी तड़के मामाजी-मामीजी रवाना हुए, तब तो उन्होंने उनसे बात की थी.”

“फिर?”
“फिर वापिस सो गई थीं.” बुत बनी दीप्ति को कब सुनीता ने बैठाया, अजय को फोन कर बुलाया, दीप्ति को कुछ भी याद नहीं था. सारे रिश्तेदार एकत्रित हुए, दाह संस्कार हुआ. दीप्ति कठपुतली की तरह रिश्तेदारों के निर्देशानुसार सब करती रही.रिश्तेदार उसे ढांढस बंधाते, “तुमने तो बहुत सेवा की उनकी. तुम्हारी वजह से ही इतने दिन और जी लीं, वरना तो शरीर में शेष ही क्या रह गया था?” प्रत्युत्तर में दीप्ति खोई-खोई-सी उन्हें ताकती रहती. वह किससे कहे कि अपराधबोध का एक कांटा उसके सीने में गहरे तक धंस गया है, जो उसे न चैन से सोने देता है, न उठने देता है, न बैठने. क्या उस दिन गहरी नींद में उसने सचमुच मांजी की घंटी की आवाज़ सुनी थी? या वह एक सपना मात्र था? यदि मांजी ने सचमुच घंटी बजाई होती और उसने अनसुना किया होता, तो मांजी और ज़ोर-ज़ोर से तब तक घंटी बजाती रहतीं जब तक कि वह रजाई छोड़कर उठ न जाती, दीप्ति की अंतरात्मा ने तर्क किया.

‘हां तो उन्होंने बजाई थी. खूब ज़ोर-ज़ोर से बजाई थी. तुम्हीं घोड़े बेचकर सोती रही. उन्हें स्ट्रोक आया और सब ख़त्म.’ अंदर से दूसरी आवाज़ ने प्रतिकार किया. ‘नहीं’ दीप्ति अकेले में ही ज़ोर से चिल्ला उठी. आसपास देखा, कोई भी तो नहीं था. आज सवेरे ही तो अंतिम रिश्तेदार कानपुरवाली मौसीजी रवाना हुई थीं. पार्थ को स्कूल छोड़कर आज से अजय ने भी ऑफिस जॉइन कर लिया था. वह घर में अकेली है, नितांत अकेली. ज़िंदगी में पहली बार. मांजी भी नहीं हैं. दीप्ति की सहमी-सी निगाहें मांजी के कमरे की ओर उठ गईं. यह क्या? उसके कानों में अचानक मांजी की घंटी की आवाज़ कैसे गूंजने लगी? ‘उफ़्फ़, मैं पागल हो जाऊंगी.’ दीप्ति ने दोनों कानों पर हाथ धर दिए, पर घंटी की आवाज़ आती रही. वह फिर सपना देख रही है, वह भी जागती आंखों से! दीप्ति ने ख़ुद को चिकोटी काटी.

‘नहीं, यह सपना नहीं है. तो फिर… क्या मांजी की भटकती आत्मा घंटी बजा रही है?’ भय से दीप्ति के रोंगटे खड़े हो गए. इतनी ठंड में भी वह पसीने से नहा उठी.

‘अरे यह आवाज़ तो दीवार के उस ओर से आ रही लगती है.’ आवाज़ की दिशा में दीप्ति के क़दम अपने फ्लैट से निकलकर पड़ोस के फ्लैट की ओर बढ़ गए थे. वह तो भूल ही गई थी अजय ने दो दिन पूर्व उसे बताया था कि पड़ोसवाले फ्लैट में रिनोवेशन पूरा करवाकर नए पड़ोसी आ गए हैं. दीप्ति जाकर उनसे मिल आए कि उन्हें कुछ चाहिए तो नहीं?

दरवाज़ा दीप्ति की ही हमउम्र संध्या ने खोला. दीप्ति के परिचय देने पर वह उसे ससम्मान अंदर ले गई. “संवेदना व्यक्त करने आना तो हमें था, पर घर व्यवस्थित करने में इतना उलझे रहे…” दीप्ति का ध्यान अंदर से आती घंटी की आवाज़ पर लगा देख वह बोल उठी, “मेरी सास हैं, पूजा कर रही हैं.” तब तक मांजी की ही उम्र, क़द-काठी की महिला धूप लेकर बाहर आ गईं. दीप्ति ने धूप लेकर उनके चरण स्पर्श किए, तो संध्या ने दीप्ति का परिचय दिया.

“ओह, कब से संध्या को आपके यहां चलने का बोल रही हूं, पर यह बेचारी भी क्या करे? पूरा घर फैला हुआ है… बहुत दुख हुआ आपकी मांजी का सुनकर. सुना है बहुत प्यार था आप दोनों में. मैं आपका दर्द समझ सकती हूं. दुखी मत होइए. बड़े-बुज़ुर्ग चाहे साथ रहें, दूर रहें या बहुत दूर चले जाएं, उनका आशीर्वाद अपने बच्चों पर हमेशा बना रहता है. वह भी बिना किसी गिले-शिकवे के.” दीप्ति अपलक उन्हें देखे जा रही थी.

लग रहा था मांजी ही उसे अपराधबोध से उबारने के लिए सामने आ खड़ी हुई हैं. उसकी आंखें डबडबा आईं. संध्या की सास शायद दीप्ति की मन:स्थिति भांप गई थी. उन्होंने अपना वरद हस्त दीप्ति के सिर पर रखते हुए उसे अपने पास खींच लिया. “तुम मुझमें उनका प्रतिरूप देख सकती हो बेटी.” दीप्ति अब स्वयं को रोक न सकी. उनके गले लग वह फूट-फूटकर रो पड़ी. बहते आंसुओं के साथ मन में घर कर गया अपराधबोध भी बहता चला गया.-

@संगीता ji की कलम से 🙏