इतिहास

कहानी क्रांतिकारी शहीद पीर अली ख़ान की — लेखक ध्रुव गुप्त

Ataulla Pathan
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7 जुलै -शहादत दिवस पर
कहानी क्रांतिकारी शहीद पीर अली खान की
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1857 के स्वाधीनता संग्राम के नायकों में सिर्फ राजे, नवाब और सामंत नहीं थे जिनके सामने अपने छोटे-बड़े राज्यों और जमींदारियों को अंग्रेजों से बचाने की चुनौती थी। उस दौर में अनगिनत योद्धा ऐसे भी रहे थे जिनके पास न तो कोई रियासत थी, न कोई संपति। उनके संघर्ष और आत्म बलिदान के पीछे देश के लिए मर मिटने के जज्बे के सिवा कुछ नहीं था। पीर अली खान स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे ही अनाम, विस्मृत योद्धाओं में एक थे।

1820 में आजमगढ़ के गांव मुहम्मदपुर में जन्मे पीर अली पारिवारिक वजहों से किशोरावस्था में घर से भागकर पटना आ गए थे। पटना के नवाब मीर अब्दुल्लाह ने उनकी परवरिश की। पढ़ाई के बाद आजीविका के लिए उन्होंने मीर साहब की मदद से किताबों की एक छोटी-सी दुकान खोल ली। कुछ ही अरसे में उनकी दुकान प्रदेश के क्रांतिकारियों के अड्डे में तब्दील होती चली गई। यहां देश भर से क्रांतिकारी साहित्य मंगाकर पढ़ी और बेचीं जाती थी। पीर अली ने देश की आज़ादी को अपने जीवन का मकसद बना लिया था। 1857 की क्रांति के वक़्त उन्होंने दिल्ली के क्रांतिकारियों की प्रेरणा से बिहार में घूमकर क्रांति का जज्बा रखने वाले सैकड़ों युवाओं को संगठित और प्रशिक्षित किया।

वह दिन भी आया जिसके लिए आजादी के सैकड़ों दीवाने एक अरसे से तैयारी कर रहे थे। पूर्व योजना के अनुसार 3 जुलाई, 1857 को पीर अली के घर पर दो सौ से ज्यादा हथियारबंद युवा छिप-छिपाकर एकत्र हुए। आजादी के लिए कुर्बानी की कसमें खाने के बाद पीर अली की अगुवाई में उन्होंने पटना के गुलज़ार बाग स्थित अंग्रेजों के प्रशासनिक भवन को घेर लिया। इस भवन से प्रदेश की क्रांतिकारी गतिविधियों पर नजर रखी जाती थी। वहां तैनात अंग्रेज अफसर डॉ. लॉयल ने क्रांतिकारियों की अनियंत्रित भीड़ पर गोली चलवा दी। अंग्रेजी सिपाहियों की फायरिंग का जवाब क्रांतिकारियों की टोली ने भी दिया। दोतरफा गोलीबारी में डॉ. लॉयल और सिपाहियों के अलावा कई क्रांतिकारी युवा मौके पर शहीद हुए और दर्जनों दूसरे घायल होकर अस्पताल पहुंच गए। पीर अली चौतरफा फायरिंग के बीच अपने कुछ साथियों के साथ बच निकलने में सफल रहे।

इस हमले के बाद पटना में दो दिनों तक अंग्रेज पुलिस का दमन-चक्र चला। संदेह के आधार पर सैकड़ों निर्दोष लोगों, खासकर मुसलमानो की गिरफ्तारियां की गईं। उनके घर तोड़े गए। कुछ युवाओं को झूठा मुठभेड़ दिखाकर गोली मार दी गई। अंततः 5 जुलाई, 1857 को पीर अली और उनके चौदह साथियों को बग़ावत के जुर्म मे गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी के बाद यातनाओं के बीच पीर अली को पटना के कमिश्नर विलियम टेलर ने प्रलोभन दिया कि अगर वे देश भर के अपने क्रांतिकारी साथियों के नाम बता दें तो उनकी जान बख्शी भी जा सकती है। पीर अली ने यह प्रस्ताव ठुकराते हुए कहा–‘जिंदगी में कई ऐसे मौक़े आते हैं जब जान बचाना ज़रूरी होता है। कई ऐसे मौक़े भी आते हैं जब जान देना जरूरी हो जाता है। यह वक़्त जान देने का है।’ अंग्रेजी हुकूमत ने दिखावे के ट्रायल के बाद 7 जुलाई, 1857 को पीर अली को उनके साथियों के साथ बीच सड़क पर फांसी पर लटका दिया। फांसी के फंदे पर झूलने के पहले पीर अली के आखिरी शब्द थे – ‘तुम हमें फांसी पर लटका सकते हो, लेकिन हमारे आदर्श की हत्या नहीं कर सकते। मैं मरूंगा तो मेरे खून से लाखों वीर पैदा होंगे जो एक दिन तुम्हारे ज़ुल्म का खात्मा कर देंगे।’

देश की आजादी के लिए प्राण का उत्सर्ग करने वाले पीर अली खां कई दूसरे शहीदों की तरह इतिहास के पन्नों से आज अनुपस्थित हैं। इतिहास लिखने वालों के अपने पूर्वग्रह होते हैं। अभी उनके नाम पर पटना में एक मोहल्ला पीरबहोर आबाद है। कुछ साल पूर्व बिहार सरकार ने उनके नाम पर गांधी मैदान के पास एक छोटा-सा पार्क बनवाया और शहर को हवाई अड्डे से जोड़ने वाली एक महत्वपूर्ण सड़क को ‘पीर अली खां मार्ग’ नाम दिया। 7 जुलाई को उनके शहादत दिवस पर समारोहों के आयोजन का सिलसिला शुरू भी शुरू हुआ लेकिन आम लोगों की उसमें भागीदारी नहीं के बराबर होती है। दुख होता है कि देश और बिहार तो क्या,आज पटना के लोगों को भी इस महान बलिदानी के बारे में कम ही पता है!
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— लेखक ध्रुव गुप्त
पूर्व आय पि एस अधिकारी
संकलन अताउल्ला खा पठाण सर
टू नकी,बुलढाणा, महाराष्ट्र

Ataulla Pathan
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7 जुलै – शहीद दिवस
#जंग_ए_आजादी_का__महान_क्रांतिकारी_पीर_अली
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📕 पीर अली को फांसी से कुछ देर पहले कमिश्नर विलियम ने अपने कमरे में बुलाया और कहा कि तुम खून से लथपथ जंज़ीरों से जकड़े हो, तुम्हारे कपड़े फटकर बदन से चिपक गये हैं, क्या तुम इन हालात से आज़ाद होना नहीं चाहोगे? जवाब में पीर अली ने सिर्फ़ टेलर की तरफ़ देखा, बोला कुछ नहीं। टेलर ने कहा कि तुम लखनऊ दिल्ली के उन लोगों के नाम बता दो, जिन्होंने तुम्हें पटना में इस काम की ज़िम्मेदारी दी है, तो मैं तुम्हें आज़ाद कर दूंगा।

📙 *पीर अली ने कहा कि जिंदगी में कुछ मौके ऐसे आते हैं, जब जान बचाना अक्लमंदी का काम होता है, लेकिन यह ऐसा मौक़ा है जब उसूल और मुल्क की आज़ादी के लिए जान की परवाह नहीं की जाती है*।

📘 *तुम हमारे ज़िस्म को फांसी पर लटका सकते हो, लेकिन हमारे उसूलों व मुल्क के लिए वफ़ादारी को फांसी नहीं दे सकते*।
📗 *पीर अली ने कहा कि तुम लोग मुझे और मेरे साथियों को मार सकते हो, लेकिन हमारे ख़ून से हज़ारों बहादुर पैदा होंगे जो अंग्रेज़ी हुकूमत का ख़ात्मा करेंगे*।

📙 *ज़ंजीरों से जकड़े पीर अली ने दोनों हाथ ऊपर उठाकर अपने अल्लाह को याद किया* और कहा कि मेरा घर ज़मींदोज़ कर दिया गया। मेरी जायदाद ज़ब्त कर ली गयी, मेरे बच्चे…..! मगर इतना कहने के बाद आपकी आवाज़ लड़खड़ाने लगी और फिर उसके बाद फांसी होने तक एक ल़फ्ज़ भी नहीं बोला।

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*पीर अली और कमिश्नर विलियम टेलर के पूरे वाक़यात को खुद टेलर ने अपनी किताब आवर क्राइसिस* में लिखा है।
टेलर के बारे में जब बहुत शिकायत हुई कि वह मनमानी कर रहा है, कानून की खिलाफ़वर्जी करके बेगुनाह लोगों को सज़ा दे रहा है और जरायम पेशा लोगों से रिश्वत खाता है तो ब्रिटिश हुकूमत ने उनका ट्रांसफर करके उनकी जगह फग्र्युसन को कमिश्नर बनाया। फिर टेलर के कामों की जांच का भी हुक्म दिया गया। जांच कमीशन के हवाले से फग्र्युसन ने बाद में कहा कि टेलर की वजह से सिविल सर्विस ही नहीं, बल्कि अंग्रेज़ हुकूमत और अंग्रेज क़ौम के लिए आम लोगों में बहुत ख़राब असर पड़ा है। पीर अली के साथ जिन 43 लोगों के पर मुक़दमा चलाये बिना ही सज़ाएं दी गयीं थीं, उनकी फिर से सुनवाई की गयी। उनमें से कई लोग, जिनके ख़िलाफ़ सबूत नहीं मिले, उन्हें रिहा करने का फ़ैसला हुआऋ लेकिन जिन्हें फांसी हो चुकी थी, उसमें से भी कुछ को बेक़सूर माना गया।

3 जुलाई सन् 1857 को पटना सिटी मंे रात 8 बजे अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ ग़ैर-सैनिकांे का एक जुलूस पीर अली की क़यादत मंे तकरीबन 60 लोगों के साथ डंका बजाते हुए निकला, जिसमें कुछ और लोग भी शामिल हो गये। जुलूस ने सबसे पहले रोमन कैथोलिक मिशन चर्च पर पहुंचकर तोड़-फोड़ की, पादरी को मारा-पीटा लेकिन वह जान बचाकर भाग गया और अंग्रेज अफ़सरों को खबर दी। जुुलूस जब चैक पहुंचा तो पुलिस ने उसे रोकने की कोशिश की और ज़बरदस्त लाठीचार्ज किया, जिसमें बहुत-से लोग घायल हुए, और इसी दौरान शेख मुहर्रम उर्फ़ इमामुद्दीन मौके़ पर ही शहीद हो गये। इसके बाद जुलूूस अफ़ीम-गोदाम की तरफ बढ़ा, जहां पहले से मौजूद अंग्रेज़ी सैनिकों से उसका टकराव हुआ। फिर भी जुलूस रुका नहीं– उल्टे, धीरेे-धीरे उसकी तादात भी बढ़ती जा रही थी। जुलूस में या अली और दीन बोलो दीन का ज़ोरदार नारा बुलंद हो रहा था। अंग्रेज़ प्रशासन बुरी तरह घबराया हुआ था। उसने दानापुर से और सैनिकों को बुलाया फिर जुलूस को कई तरफ़ से घेरने की कोशिश की गयी। इसी में अफीम-फैक्ट्री का इंचार्ज डाॅ. आर. लायल ने पचासों सिपाहियांे के साथ छुपकर पीर अली पर गोली चलायी। जवाब में पीर अली ने गोली चलायी। पीर अली का निशाना सटीक था। लायल को चार गोली लगीं, वो वहीं ढेर हो गया और उसके साथ के सभी सिपाही भाग लिये।

अब सरकार ने पीर अली व उनके साथियों को पकड़ने के लिए ज़बरदस्त घेराबंदी करायी। आपको पकड़ने के लिए कैप्टन रेट्रे के साथ सौ सिख सैनिक, पटना के मजिस्ट्रेट जे.एम. लेविस और असिसटेंट मजिस्ट्रेट मैंगल्स भी मौक़े पर भेजे गये। ये लोग अभी जा ही रहे थे कि ख़बर मिली कि डाॅ. लायल और एक दरोग़ा व सिपाही गोलीबारी में मारे जा चुके हैंऋ मुजाहेदीन में भी कइयों को गोली लगी हैऋ एक मुजाहिद इमामुद्दीन ज़ख्मी हालत में गिरफ्तार भी हुआ है।
अंग्रेज अफ़सरों की हिटलिस्ट मंे पीर अली बुकसेलर थे। आपके घर की तलाशी हुई जहां कई खत ऐसे मिले, जिनसे पता चलता है कि ये लोग लखनऊ से आये मुजाहेदीन के साथ थे। तलाशी में बहादुरशाह ज़फर की हुकूमत का झण्डा भी बरामद हुआ। जहां पर लायल को मारा गया था, वहां भी ऐसे ही झण्डे मिले थे। अब अंग्रेज़ों ने पूरी ताक़त लगाकर इन मुजाहेदीन को पकड़ने की कोशिश की। पीर अली के मकान को ढहाकर ज़मीन मंे मिला दिया गया। मकान की तलाशी में मिले सबूतों की बिना पर यह पता चला कि पीर अली लखनऊ के रहने वाले थे और पटना सिटी में आपके बसने का मक़सद दरअसल सिर्फ अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ जंग लड़ना था, जिसे आपने बख़ूबी निभाया। पहले अंग्रेज़ पीर अली ढपाली को ही आंदोलन का नेतृत्व करनेवाला समझ रहे थे लेकिन तलाशी में पता चला कि दोनों पीर अली एक नहीं हैं। अंग्रेज़ो को पता चला कि पटना सिटी की रुस्तम गली का जो पीर अली है वह ढपाली है, उसे सिर्फ नगाड़ा बजाने के काम के लिये साथ लिया गया था– जबकि यह दूसरा पीर अली लखनऊ का है और दिल्ली के बहादुरशाह ज़फर के लोगांे में से रहा है।

लखनऊ से आनेवालों में पीर अली, युसूफ़ अली और इमामुद्दीन थे, जबकि दूसरा दल अली करीम अली वारिस अली का था। दोनों मिलकर तहरीक को अंजाम दे रहे थे। इन लोगों के साथ क़ासिम शेख, महबूब शेख, शेर अली और खदेरन भी थे। ख़्वाजा अमीर जान के घर मीटिंगें होती थीं। पीर अली की क़यादत के बाद क़ासिम शेख को नायब बनाया गया था। क़ासिम शेख भी पटना की बग़ावत की अहम कड़ी थे। पुलिस ने क़ासिम और उनके कुछ साथियों को गिरफ्तार कर लिया था। उन लोगों की मदद के शक मंे दरोग़ा मौलवी मेहदी अली, को भी गिरफ्तार कर लिया गया जो लखनऊ के ही रहने वाले थे।

पीर अली के मकान को ज़मींदोज़ करके उस पर एक बोर्ड लगाया कि जो भी शख्स पीर अली या जेहादियों का साथ देगा, उसका भी यही हाल किया जायेगा। विलियम टेलर का मानना था कि विद्रोहियों का सरगना पीर अली ही है और लायल को गोली भी पीर अली ने ही मारी है। 6 जुलाई सन् 1858 को पीर अली और उनके 43 साथियों को गिरफ्तार किया गया। अगले ही दिन 7 जुलाई को विलियम टेलर और दूसरे मजिस्ट्रटों ने सुनवाई की। सुनवाई का नाटक कुल तीन घंटे तक चला। पूरी सुनवाई और कार्यवाही के दौरान टेलर खुद बैठा हुआ था।

7 जुलाई को ही
1). पीर अली खान,
2). शेख घसीटा ख़लीफा,
3). ग़ुलाम अब्बास,
4). जुम्मन,
5). मदुआ मियां,
6). काजील खान,
7.) रमज़ानी,
😎. पीर बख़्श,
9.) पीर अली वल्द बगादू,
10). वाहिद अली,
11). ग़ुलाम अली,
12). महमूद अकबर और
13). असग़र अली खान वल्द हैदर अली खान को फांसी पर लटका दिया गया। इन्हीं के साथ *नन्दूलाल* को भी फांसी दी गई थी।

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संदर्भ –1) heritage times
— Md Umar Ashraf
2) *लहू बोलता भी है*
– *सय्यद शहनवाज अहमद कादरी,कृष्ण कल्की*

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संकलन *अताउल्ला खा रफिक खा पठाण सर टूनकी,संग्रामपुर, बुलढाणा महाराष्ट्र*
9423338726