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कहानियों में इतनी ताक्रत होती है कि वे लोगों की सोच बदल सकती हैं, फ़िल्में भी इससे अलग नहीं हैं!

एक नए अध्ययन से पता चला है कि फिल्में हमारी सोच पर कैसा असर डाल सकती हैं. लोगों को सच्ची घटना पर बनी एक फिल्म दिखाई गई, जिसमें एक निर्दोष व्यक्ति को सजा दी गई थी. फिल्म देखकर लोगों में कैदियों के लिए अधिक संवेदना जगी.

कहानियों में इतनी ताकत होती है कि वे लोगों की सोच बदल सकती हैं. फिल्में भी इससे अलग नहीं हैं!

1890 के दशक में पहली बार चलती-फिरती तस्वीरों के बाद से फिल्म निर्माताओं ने लोगों के नजरिए और नैतिक रुख को बदलने के लिए सिनेमा की तरकीबों का इस्तेमाल किया है. एक नए अध्ययन में सामने आया कि फिल्म देखने से लोगों की भावनाओं को समझने की क्षमता और आपराधिक न्याय प्रणाली पर नैतिक रुख में किस तरह का बदलाव आता है.

 'जस्ट मर्सी' फिल्म का एक दृश्य

पीएनएएस जर्नल में 21 अक्टूबर को प्रकाशित हुए एक अध्ययन में पाया गया कि गलत तरीके से मौत की सजा पाए एक व्यक्ति को आजाद करने के प्रयासों के बारे में एक डॉक्यूड्रामा देखने से जेल में बंद लोगों के प्रति सहानुभूति बढ़ी और उन्होंने अमेरिका की न्याय प्रणाली में सुधार की मांग की.

अमेरिका की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में कॉग्निटिव वैज्ञानिक मैरिएन रेड्डन ने कहा, “हमारे अध्ययन से पता चला है कि इस फिल्म को देखने के बाद लोग कैदियों को बेहतर तरीके से समझने लगे और उनके प्रति सहानुभूति दिखाने लगे, भले ही समाज में कैदियों के बारे में गलत धारणाएं हों. यह सिर्फ एक क्षणिक भावना नहीं है, बल्कि एक कौशल है.”

रेड्डन इस अध्ययन का नेतृत्व करने वाले लोगों में शामिल हैं. उन्होंने आगे बताया, “इससे पता चलता है कि अलग-अलग जीवन जीने वाले लोगों के व्यक्तिगत अनुभवों को समझना एक स्वस्थ समाज और बेहतर राजनीतिक व्यवस्था के लिए बहुत जरूरी है.”

दर्शकों में सहानुभूति बढ़ाता है ‘जस्ट मर्सी’ डॉक्यूड्रामा
वर्ष 1986 में अलबामा में रहने वाले 45 वर्षीय अश्वेत लकड़हारे वॉल्टर मैकमिलियन को हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. मैकमिलियन निर्दोष थे. जब अपराध हुआ, तब वह एक पारिवारिक समारोह में थे, लेकिन प्रत्यक्षदर्शी की झूठी गवाही के आधार पर उन्हें दोषी ठहराया गया. छह साल तक उनपर मौत की सजा का खतरा मंडराता रहा, बाद में अदालत ने मैकमिलियन को निर्दोष करार दिया.

इस सच्ची कहानी पर ‘जस्ट मर्सी’ नामक एक बायोपिक बनाई गई, जिसे 2019 में रिलीज किया गया. इसमें ऑस्कर विजेता जेमी फॉक्स ने मैकमिलियन की भूमिका निभाई. इस फिल्म को देखने के बाद, अध्ययन में शामिल लोगों में जेल में बंद पुरुषों के प्रति ज्यादा सहानुभूति देखने को मिली. यह प्रभाव राजनीतिक रूप से वामपंथी और दक्षिणपंथी, दोनों तरह के लोगों में दिखा.

अमेरिका में केनिथल यूजीन स्मिथ को मौत की सजा दिए जाने का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारी.

रेड्डन ने बताया, “इस अध्ययन में सिर्फ सहानुभूति का ही आकलन नहीं किया गया. यह भी देखा गया कि लोग ऐसे व्यक्ति की भावनाओं को कितनी अच्छी तरह समझ पा रहे हैं, जिनसे वे पहले कभी नहीं मिले हैं और जो जेल में रह चुके हैं.”

इस फिल्म को देखने के बाद कई लोग न्याय प्रणाली में सुधार की मांग भी करने लगे, जैसे कि जेलों में शिक्षा कार्यक्रमों के लिए टैक्स का पैसा खर्च करना या मौत की सजा के खिलाफ आवाज उठाना. शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि ‘जस्ट मर्सी’ देखने वाले लोगों में आपराधिक न्याय सुधार का समर्थन करने वाली याचिका पर हस्ताक्षर करने की संभावना अन्य समूह के प्रतिभागियों की तुलना में 7.7 फीसदी अधिक थी.

फिनलैंड के युवास्कुला यूनिवर्सिटी में कॉग्निटिव विज्ञान और फिल्म अध्ययन के शोधकर्ता होसे कैनस बायो ने बताया, “इस अध्ययन से पता चलता है कि फिल्में और वीडियो लोगों की सोच को बदल सकते हैं. उन्हें एकजुट होकर काम करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं. ‘जस्ट मर्सी’ ने न सिर्फ लोगों के नजरिए को बदला, बल्कि उनके व्यवहार को भी बदल दिया.” कैनस इस अध्ययन में शामिल नहीं थे.

Cannes Film Festival - Karla Sofia

फिल्म, भावना और ध्रुवीकरण
कैनस ने कहा कि इस अध्ययन की खास बात यह है कि इसमें यह पता लगाया गया है कि फिल्में किस तरह से लोगों की सोच और उनके काम करने के तरीके को बदल सकती हैं. ‘जस्ट मर्सी’ जैसी फिल्म लोगों को जागरूक कर सकती है और उन्हें कुछ करने के लिए प्रेरित कर सकती है.

हालांकि, यह विचार कि फिल्में लोगों का नजरिया बदल सकती हैं, नया नहीं है. इस विषय पर कैनस बताते हैं, “फिल्म निर्माता जादूगर की तरह होते हैं. वे फिल्म निर्माण के शुरुआती दिनों से ही संपादन के तरीकों से दर्शकों की धारणाओं और भावनाओं को प्रभावित करने पर शोध करते रहे हैं. वे फिल्मों का निर्माण इस तरह करते हैं कि दर्शक उनकी बातों से सहमत दिखें.”

अल्फ्रेड हिचकॉक ने एक दिलचस्प प्रयोग किया. उन्होंने एक महिला और उसके बच्चे की क्लिप बनाई और फिर मुस्कराते हुए एक आदमी की क्लिप जोड़ी. ऐसा लगता था कि वह आदमी, महिला और बच्चे के प्रति सहानुभूति दिखा रहा है. हालांकि, जब उन्होंने महिला और बच्चे की जगह बिकिनी पहनी महिला की क्लिप लगाई, तो आदमी की मुस्कान अब कामुक लगने लगी. इस प्रयोग से पता चलता है कि फिल्मों से लोगों की भावनाओं को कैसे प्रभावित किया जा सकता है.

कैनस बायो ने बताया कि फिल्म निर्माता जानते हैं कि लोग फिल्म देखते समय ऐसी भावनाओं का अनुभव कर सकते हैं, जो वे असल जिंदगी में शायद महसूस न करें. इसलिए फिल्म निर्माताओं की जिम्मेदारी होती है कि वे ऐसी कहानियां सुनाएं, जो लोगों को सही दिशा में ले जाएं.

इस अध्ययन में ‘जस्ट मर्सी’ फिल्म के निर्माताओं ने अपने कौशल का इस्तेमाल एक ऐसे व्यक्ति के प्रति दर्शकों की सहानुभूति को प्रभावित करने के लिए किया, जिसे हत्या के उस मामले के लिए जेल में रखा गया जो उसने कभी की ही नहीं थी. इस फिल्म का इस्तेमाल न्याय प्रणाली में सुधार लाने के लिए एक उपकरण के रूप में किया गया.

हालांकि, फिल्म निर्माता लोगों में नफरत पैदा करने के लिए भी फिल्मों का इस्तेमाल कर सकते हैं. वे फिल्मों में कुछ लोगों को इतने बुरे तरीके से दिखा सकते हैं कि लोग उनसे नफरत करने लगें. दुष्प्रचार के लिए बनाई गई फिल्में लोगों को अमानवीय बनाने, हिंसा या युद्ध को सही ठहराने या झूठी खबरें फैलाने के लिए इस्तेमाल की जाती रही हैं.

कैनस बायो ने कहा, “अपराध आधारित कुछ डॉक्यूमेंट्री फिल्मों में अपराधियों को बहुत ही बुरा दिखाया जाता है, जिससे लोग उनसे नफरत करने लगते हैं. इससे लोग सख्त सजा देने की मांग करने लगते हैं, जिसमें मौत की सजा भी शामिल हो सकती है.”

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कितने समय तक रहती है सहानुभूति?
इस अध्ययन से एक सवाल उठता है कि फिल्म देखने के बाद लोग कितने समय तक सहानुभूति रखते हैं. क्या सिर्फ एक फिल्म देखने से लोगों की राजनीतिक या नैतिक सोच में हमेशा के लिए बदलाव आ सकता है? रेड्डन ने बताया कि उनकी टीम इस समय एक नया अध्ययन कर रही है, जिसमें पता लगाया जा रहा है कि फिल्म देखने के बाद पैदा हुई सहानुभूति कितने समय तक बनी रहती है.

उन्होंने बताया, “शुरुआती तौर पर पता चला है कि फिल्म देखने के बाद पैदा हुई सहानुभूति कम-से-कम तीन महीने तक बनी रहती है. हम अभी न्यूरोइमेजिंग डेटा, यानी मस्तिष्क की जांच करके यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि फिल्म देखने से मस्तिष्क कैसे प्रभावित होता है और हमारी सहानुभूति कैसे बढ़ती है.”

कैनस बायो कहते हैं, “यह पता लगाना मुश्किल है कि सिर्फ एक फिल्म देखने से कितना प्रभाव पड़ता है. जब हम कोई फिल्म देखते हैं, तो हम अपनी पुरानी यादों और देखी हुई फिल्मों से उसकी तुलना करते हैं. भावनात्मक रूप से जुड़ने के लिए यह जरूरी नहीं है कि एक ही व्यक्ति ने ये सारी फिल्में बनाई हो. दर्शकों के दिमाग में ये फिल्में एक-दूसरे से जुड़ जाती हैं.”

रेड्डन कहती हैं, “हमें ध्यान रखना चाहिए कि हम किस तरह की फिल्में देखते हैं, क्योंकि फिल्में हमारे सोचने और समझने के तरीके को काफी ज्यादा प्रभावित करती हैं. ये इस हद तक प्रभावित करती हैं कि हम दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं इसपर भी असर पड़ सकता है.”

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