साहित्य

कभी तक़दीर का मातम कभी दुनियाँ से गिला

मधुसूदन उपाध्याय
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कभी तकदीर का मातम कभी दुनियाँ से गिला
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इस शीर्षक से शकील बंदायूनी की एक गजल के एक मकते को आधार बना कर यह लिख रहा हूँ। शुद्ध मन से तथा ईश्वर को साक्षी रखकर ।
जो लोग भाग्य नहीं मानते उनके लिए यह सब कुछ एक बार सोचने का विषय है।
मेरी एक आदत है। बुजुर्गों से मिलते रहते हैं। उनके अनुभवों से जानने सीखने कि कोशिश करते हैं। अक्सर उनसे जीवन के उद्देश्यों के बारे में पूछते हैं। एकरस न हो जाए जीवन, उन तरीकों के बारे में पूछते हैं। उनकी व्यक्तिगत अनुभूतियों पर बात करते हैं। भौतिक भी पराभौतिक भी।
लैबोरेट्री में मेरी एक शिष्या हैं रूचि पाठक (परिवर्तित नाम)। एक दिन उसने अपनी कहानी सुनाई। रूचि पाठक गोद ली हुई बच्ची थी। एक बुजुर्ग व्यक्ति ने रूचि को गोद लिया था। उन्हें वह बाबा कहती हैं। नाम है प्रोफेसर रामचन्द्र पाठक।
प्रो. पाठक अब गोरखपुर के बेतियाहाता मुहल्ले के बगल दाउदपुर में अपनी वृद्धावस्था और रिटायर्ड जीवन जी रहे हैं। दुनिया घूमे हैं। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड के कई विश्वविद्यालयों में रहे हैं। अमरीका, यूरोप में विजिटिंग फेलो रहे हैं। कैमिस्ट्री की दुनिया का एक जाना पहचाना नाम। हल्द्वानी, नैनीताल और गोरखपुर में घर प्रॉपर्टी बना रखी है।
रूचि की बहुत इच्छा थी कि मैं उनसे मिलूँ। सो इस बार लखनऊ से हम उसके साथ ही गये उसके घर। दस पंद्रह मिनट में वह बुजुर्गवार खुलने लगे थे। उनकी संक्षिप्त कहानी अब उनकी जुबानी। यह कहानी इसलिए भी क्योंकि इसका संबंध होली से भी है।
मैं यह बात उन देवताओं से मिली जानकारी के आधार पर लिख रहा हूँ जिन्होने यह सूचनाएं मुझे प्रदान की। पूज्य महाकाली,कोट्यगाडी माँ अखिलतारणी, बरम बाबा, डीह बाबा, बाबा गंगनाथ तथा एक मुसलमान साधक से मुझे यह बात मालूम पड़ी ।
मेरी पत्नी का देहान्त एक लम्बी बीमारी से जूझने के बाद हुआ था। मेरे परिवार से ही जुड़े अन्य चार परिवारों की साजिश से उसके साथ यह सब हुआ ।इनमें मेरे दो सौतेले भाई तथा मेरे पूज्य पिताजी के ताऊ गंगादत्त के लड़को के परिवार थे । उनमें एक का नाम था जानकी बल्लभ पाठक तथा दूसरे का था देवकी ऩंदन। मेरे सौतेले भाईयों के नाम हैं ललित मोहन पाठक जो मुझसे बड़ा है और उसका छोटा भाई जो मझसे भी छोटा है इन चार परिवारों ने मेरी पत्नी को तथा उसके बच्चे को मार दिया ।
म़ु़झे डायरी लिखने का अभ्यास एवं शौक नहीं है।घटना का समय दस मई से पूर्व उन्नीस सौ चौरासी का रहा होगा। माँ कोट काली ने हमारे एक मित्र को यह बता दिया था कि मेरी पत्नी के साथ गर्भपात की दुर्घटना हो चुकी है। माँ ने कोटकाली से पूछने को कहा था। पूूछने के हेतु से अक्षत चावल भिजवाये थे। यह बात मेरी माँ ने नहीं एक मित्र ने हमें बतलाई ।हम दोनो पति पत्नी इसे प्राकृतिक घटना मान कर चुप रहे। हमने इस बात का जिक्र भी किसी से नहीं किया।
उस वक्त ललित पाठक हमारे साथ ही रह कर अपने और अपने भाई के लिए जमीन तलाश रहा था। मैने उसे जमीन खरीदनेे हेतु पचास हजार रूपये उपलब्ध कराए । तबके लिए यह भी बड़ी राशि थी, मेरी पत्नी की भी इच्छा थी कि वह जमीन खरीद ले ।
न जाने कब उसने मेरी पत्नी को गर्भपात की दवा खिला दी । हम दोनों पति एवं पत्नी डाक्टर के पास भी गये थे। जिसने गर्भ की पुष्टि की थी ।
ललित और मैं सहपाठी थे । हम दोनों ने प्राथमिक शिक्षा साथ ही ली थी। साथ ही कक्षा पाँच की परीक्षा उत्तीर्ण की थी । सन बावन में हम दोनों ने कक्षा पाँच की परीक्षा उत्तीर्ण की थी ।
फिर हम कुछ अन्तराल के उपरान्त कक्षा आठ से दसवीं कक्षा तक सहपाठी रहे । वह बचपन से ही शरारती रहा। वह कक्षा दस में अनुत्तीर्ण होकर आगे नहीं पढ़ कर पीएसी में भरती गया और हेडकॉंस्टेबल पद से रिटायर हो गया। इसने मेरी माँ को कई बार धमकी दी थी कि “तू क्या समझती है कि तेरे लड़कों ने पढ़ लिया है ,मैं उनको खाने नहीं दूँगा “।
संभवतः यही दुष्प्रवृति उसे एक अन्य दुष्ट व्यक्ति से जोड़ लाई। उसका नाम था जानकी बल्लभ। इन दोनो की साजिश से ही या यों कह लीजिए कि मिली भगत से मेरी पत्नी को कोई ऐसा रसायन खिला दिया जिसने न केवल उसका गर्भ गिरा दिया बल्कि वह बीमार भी रहने लगी ।
यह रसायन जानकीबल्लभ ने ही ललित को दिया था । हमारे खानदान मे परम्परागत वैद्यक रही है । यही कारण है कि उसे गर्भपात की दवा मालूम हो। देवताओं का यह भी कहना है कि उस रसायन ने मेरी पत्नी की कोख भी सुखा दी ।भविष्य में फिर कभी गर्भ नहीं ठहर पाया ।
जिस विषको मेरी पत्नी को दिया गया था उसका दुष्प्रभाव धीरे धीरे बढ़ता चला गया । वर्ष दो हजार आठ में हमारे एक मित्र के माध्यम से हमें कर्नाटक में गुलबर्गा के एक मुसलमान साधक से पहली बार यह पता चला कि मेरी पत्नी को विष देकर मेरे सौतले भाई ने उसका गर्भ गिरा दिया था तथा उस विष के कारण ही मेरी पत्नी के शरीर के हर जोड़ में गठिया हो गया था ।
यह पहली बार हमें मिलने वाली जानकारी थी।लेकिन जब भी वह दर्द से कराहते हुये मुझसे यह पुछती थी कि उसने मेरे भाईयों का क्या बिगाड़ा था मैं कोई जबाब नहीं दे पाता था । तब मैंने देवताओं के दरबार में जाकर पूछना प्रारम्भ किया ।
पूज्य महाकाली ने पहली बार मुझे पूरी घटना की जानकारी दी और बतलाया कि इस साजिश को कैसे और किन लोगों ने अंजाम दिया था। यह बात मैंने अपनी बड़ी बहन से साझा की लेकिन पत्नी को नहीं बतलाया।
ललित का व्यवहार मेरी पत्नी के साध इतना मृदुल था कि वह कहते नहीं अघाती थी कि ललित बाबू बहुत अच्छे हैं । ललित ने कभी यह जाहिर नहीं होने दिया कि वह क्या कर चुका है ।
अब मैं उसके छोटे भाई और देवकीनन्दन की चर्चा करूँगा। जैसा मैं लिख चुका हूँ इसका नाम दिनेश है। यह भी आगे नहीं पढ़ पाया। किसी तरह हाईस्कूल उत्तीर्ण करने के बाद वह फौज में भर्ती हो गया ।मैं इससे हमेशा प्यार करता रहा तथा इसके व्यवहार से मुझे कभी इसके कपट का पता नहीं चल पाया। अपने लड़कों की नौकरी लगवाने से लेकर बिटिया की शादी हेतु धन लेने मेरे पास आता रहा।
ये दोनों भाई हमारे गाँव में जानकीबल्लभ व देवकीनंदन के संपर्क मे आए। देवकीनंदन कोई ऐसा तंत्र -मंत्र जानता था जिसके प्रयोग से किसी भी अपेक्षित व्यक्ति के प्राण लिए जा सकते थे।उसने दिनेश के साथ मिल कर यह प्रयोग मेरे तथा मेरी पत्नी पर किया। मैं विवाह के उपरान्त जब बारात लेकर लौटा तो पाया कि मेरे शयन कक्ष में मेरी डबल बेड में चादर के उपर तथा बेड के चारों ओर सिंदूर बिखरा पड़ा था। यह सिन्दूर कब और किसने बिखराया पता नहीं चला। मैं सख्त बीमार हो गया।लगभग मरनासन्न हो गया। मेरा इलाज होने लगा।
मेरी माँ इस बीच अपने मायके गई वहाँ उसने अपनी रिश्ते की बहन जिनके शरीर मे उनके मायके की देवी आती थीं से पूछा कि मेरा लड़का क्यों मरनासन्न है उसको देवी ने बतलाया ‘कि दीदी तुम भाग्यशाली हो तुम्हारे बच्चे बच गये हैं। मेरे साथ मेरी पत्नी भी इसी बीच बीमार हो गई थी।
देवी ने मेरी माँ को किसी का नाम नहीं बतलाया परन्तु इतना बतलाया कि तू याद कर कि उस दिन रामू याने मैं ,के कमरे के दरवाजे के बाहर कोई जोर जोर से हँस रहा था। माँ उस वक्त रसोई में पूड़ियाँ तल रही थी। उसने मुझे आगाह किया कि पूरी तलते वक्त दिनेश को ही बड़े जोर जोर से हँसते सुना था।
जब यह घटना हुई मैं अमेरीका से नया नया पीएचडी करके लौटा था। मैंने इस बात को नजर अंदाज कर दिया । परन्तु बाद में गोलज्यू के डंगरिए से सन दो हजार आठ में पुष्टि हुई कि यह काम किसका था।
जो भी व्यक्ति ईश्वर को नहीं मानता तथा भूत प्रेतों को नहीं मानता अथवा ईश्वरीय न्याय को नकारता है, उन सभी को इस को अवश्य पढ़ना चाहिए।
श्मसान में रहकर प्रेत-साधना या मसान(मसाण) को काबू में करके दुश्मनको नुकसान पहुँचाने की क्रिया तंत्र से संपन्न की जाती है । यह साधना बड़ी कठिन मानी जाती है ।जब एलोपैथी होमियोपैथी से मेरी पत्नी को कोई फायदा नहीं हुआ तो मैंने अपने एक शिष्य की संस्तुति पर हरदोई के एक वैद्य का इलाज करवाना प्रारंभ किया । वैद्य हर महीने आता था और मोटी रकम ले जाता था । जून दो हजार आठ से यह इलाज प्रारंभ हुआ ।
इस बीच मुझे गोलज्यू के एक डंगरिये से मिलने का मौका मिला । मैं उसको आग्रहपूर्वक अपने घर बुला लाया । उसने कार की व्यवस्था करने को कहा।जब वह मेरे घर की बैठक में था, उसने पूछा कि इस घर में कहीं राख की पुड़िया कभी मिली, मैने कहा हाँ जिस दीवान के उपर बैठे हो उसके गद्दे के नीचे मिली ।
उसने मुझसे पूछा उसका क्या किया मैंने उनको बतलाया कि उस राख को मेरे रसोइये ने मेरे कहने पर आंगन में तुलसी की जड़ में डाल दिया।उसने कहा ऐसा अनर्थ क्यों किया, आपको उस राख को चार पाँच किलोमीटर दूर नहर में बहा देना चाहिए था। मेरे पूछने पर उसने बतलाया कि वह आप दोनों को मारने केलिए बहुत जबर्दस्त जादू था। उसने यह भी बतलाया कि शीघ्र आकर वह मेरे घर का कीलन कर देगा । परन्तु मेरी पत्नी की तबियत इतनी खराब चल रही थी कि मैं दुबारा उसे नहीं बुला पाया।
जब मैंने पूछा कि राख कौन लाया उसने बतलाया कि तुम्हारा सौतिया कारबिर है तुम्हारे सौतेलेभाई ही इसे लाए। मैं यह बात सुनकर दंग रह गया।
जिस दीवान के गद्दे के नीचे राख की पुड़िया मिली थी, जो वैद्य मेरी पत्नी के इलाज के लिए आता था वह तथा मुझसे मिलने वाले मित्र उस पर बैठते रहे थे।
संभवतः अगस्त दो हजार नौ मे अचानक मुझे दिमाग में आया कि दीवान का गद्दा कई दिन से नहीं पलटा गया था। अतः हमने उसे पलट दिया था। राख.को तुलसी की जड़ में डाल कर एक तरह से हम उसे भूल ही गये थे।
इस बीच सितम्बर माह में वैद्यजी का फोन आया कि वे सख़्त बीमार हैं, अतः आने में असमर्थ हैं। दवा न मिलने के कारण श्रीमतीजी की तबियत खराब होने लगी। अतः फिर से होमियोपैथी का इलाज करना पड़ा। लेकिन तबियत बिगड़ती गई। अन्ततः नवंबर पन्द्रह को लगातार बेहोश रहने के बाद उसकी मृत्यु नोयडा के फोर्टिस अस्पताल में मृत्यु हो गई।तुलसी की जड़ में डाली गई राख एक तरह से विस्मृत सी ही हो गई।
जिस मुसलमान तांत्रिक से सबसे पहले हमें इस बात का बात पता चला था मैंने उसे अपने मित्र के माध्यम से हल्द्वानी आने की दावत दी इसके आने पर मैं आपने दोनों सौतेले भाईयों से उसका सामना कराऊँगा। मैंने उसे धन देने का वायदा भी किया। सेकंड क्लास एयर कंडीशन का किराया भी देने की बात की। वह मान गया और उसने टिकट बुक करा लिया। परन्तु इस बीच सूचना मिली कि उसका हार्ट फेल होने के कारण निधन हो गया है। मैंने उसके परिवार के लिए कुछ धन भी भिजवाया।
क्रमशः