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कऊड़ा और बिड़वा!

अरूणिमा सिंह
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कऊड़ा और बिड़वा!
इहका आप लोग जानत हो?
गांव के होंगे तो जरूर जानते होंगे एकदम ठेठ शहरी होंगे तब नही जानते होंगे!
ई कउड़ा है और बैठने के लिए जो रखा है वो बिड़वा है!
ठंड में कउड़ा का क्या महत्व है ये तो बताने की जरूरत नहीं है। सुबह शाम घर का जिम्मेदार व्यक्ति कउड़ा की व्यवस्था करता है जिम्मेदार व्यक्ति इसलिए क्योकि कउड़ा जमाना हर किसी के बस की बात नही होती है।

जो बिना अधिक धुंआ दिए अच्छी तरह से जले और तेज आंच दे, देर तक बुझे न वही कउड़ा अच्छा माना जाता है। ऐसा कउड़ा अनुभवी व्यक्ति ही जमा सकता है।

सबसे पहले नीचे थोड़ा सड़ा गला सूखा भूसा, फिर करसोला (टूटी हुई कंडी )अर्थात उपला जिसे करसी भी कहते हैं, उसके ऊपर मोटी लकड़ियां बीच में गन्ने के सूखे छिलके जिसे खोइया कहते हैं और फिर ऊपर से जल्दी जल जाने वाली सुखी गन्ने की पत्ती इत्यादि रखकर बड़े ही ब्योत से कउड़ा जमाया जाता है।

बचपन में गांव के सब बच्चे जो मेरे मित्र थे वो कउड़ा के लिए आम के बगिया में खदिहवा बोरा और खरहरा लेकर आम की सूखी पत्तियाँ इकट्ठी करने जाते थे।

उन्हें पत्तियां बहार कर लाते देखकर मेरा भी मन करता था कि मैं भी सबके संग पाती बटोरने जाऊ लेकिन नानी जाने की अनुमति नहीं देती थी क्योंकि मेरे घर पर पर्याप्त मात्रा में जलौनी लकड़ियां होती थी।

घर पर बहुत सारे शीशम के पेड़ लगे हुए थे। सर्दी शुरू होने से पहले नानी जी उनकी टहनियों की कटाई छटाई करवा देती थी। जो सूखने के बाद कउड़ा में जलाने के काम आती थी इसलिए मुझे अपनी चंडाल चौकड़ी के संग बगिया में पाती बहारने जाने की अनुमति नहीं थी।

लेकिन बालमन कहां मानता है सो मैं भी चोरी से अपने मित्रों संग चली जाती थी और जितनी पत्ती इक्कठी करती थी उसे अपनी किसी सहेली को दे आती थी क्योंकि घर लेकर आती तो नानी की डांट सुनना पड़ता। परन्तु मन की इच्छा की पूर्ति करनी होती थी इसलिए पत्तियां बटोर कर उस सुख की सुखद अनुभूति करने चली जाती थी।

शाम को जब कउड़ा जलने का समय होता था तब घर के किसी बच्चे को माचिस लेने दौड़ाया जाता था ताकि कउड़ा जलाया जाय और फिर घर के सब सदस्यों को आवाज लगा दिया जाता है कि सब लोग आवो कउड़ा जलने जा रहा है हाथ पैर सेक कर गर्म कर लो।

छोटे बच्चों को हुरिया कर हाथ पैर धुलाये जाते हैं और फिर कउड़ा सेकवाया जाता है। इसी कउड़ा में लोटे में पानी गर्म करके बच्चों के फ़टे और मैल जमे मुँह को कपड़े से रगड़ रगड़ कर साफ किया जाता है ताकि नहाये हुए से लगने लगे।

जब लकड़ियां जल जाती हैं सिर्फ दहकती आग बचती है तब इसमे आलू, शकरकंद, मटर की फली, आँवला, अमरूद इत्यादि भून कर मस्त हरी मिर्च, हरी धनिया , लहसुन वाले तीखे चटपटे नमक के साथ आनंद लिया जाता है। इन भुने हुए व्यंजनों को खाने के लिए अक्सर छोटे भाई बहनों से झोटा नोचकर लड़ाई हो जाती है जो मां की डांट या एकाध झापड़ खाने के बाद ही खत्म होती है।

घर के सबसे बुजुर्ग कउड़ा जलने के बाद से लेकर कउड़े में बची अंतिम चिंगारी के बुझने तक बैठ कर आग सेकते रहते हैं और हाथ में थामे डंडे से बार बार कउड़ा खोद खोद कर आग की आंच को तेज करके कउड़ा का सबसे ज्यादा फायदा उठाते हैं।
कौड़ा पर एक कहावत है कहावत कौड़ा पर नहीं सर्दी पर है कि सर्दी कहती है —

लरिकन का कुछ बोलब नाही, जवनके लगे भाई।
बुढ़वन का छोड़ब नाही, चाहे जेतना ओढ़े रजाई।।

जिसकी तरफ धुंआ अधिक जाता था कहते थे कि उसकी सास उसे बहुत प्यार करती है।
कउड़ा जलते ही सबसे पहले लड़ाई बिड़वा के लिए होती है कि कौन सबसे बड़के बिड़वा पर बैठेगा ??

और ये लड़ाई अक्सर सबसे ताकतवर बच्चा ही जीतता है क्योंकि जो छीन लिया बिड़वा उसी का होता है और इस छीना झपटी में अक्सर बिड़वा खुल जाता है और फिर आग सेक कर नही झापड़ खाकर बच्चों के गाल गर्म किये जाते हैं।

अब आप लोग सोच रहे होंगे कि ये बिड़वा क्या होता है तो ये बिड़वा पराली जिसे हमारी तरफ पैरा कहते हैं उससे बनाया जाता है। बिड़वा बनाना भी एक कला है। बिड़वा कई तरह से बनता है बिड़वा बनाने से ज्यादा कलाकारी उसको लपेटकर बाँधने में है क्योंकि अगर इसे मजबूती से नही बांधा गया तो ये जल्दी खुलकर खराब हो जाता है।

बाबा बिड़वा बनाते थे जिनमें कुछ छोटे, कुछ नीचे, कुछ खूब ऊंचे ऊंचे होते थे।
हम बच्चे एक के ऊपर एक बिड़वा रखकर बैठते थे और खुद को रावण के दरबार में बैठा अंगद समझते थे हालांकि ये खेल खेलना खतरनाक होता था इसलिए कौड़े से दूर खेला जाता था।

अक्सर सबका अपना अपना बिड़वा फिक्स रहता था लेकिन जब लड़ाई करने का इरादा हो तो बिड़वा इधर उधर करके या दूसरों के बिड़वा पर बैठकर जंग का आमंत्रण दिया जाता था।

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तस्वीर ठाकुर शौर्य सिंह भाई ने भेजा है।
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अरूणिमा सिंह