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एक दंगा आपकी ज़िंदगी कैसे उथल-पुथल कर सकता है शायद ही सरदार परमजीत सिंह की कहानी से अच्छा कोई समझा पाए

Apna Baghnagar
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एक दंगा आपकी ज़िंदगी कैसे उथल-पुथल कर सकता है शायद ही सरदार परमजीत सिंह की कहानी से अच्छा कोई समझा पाए।
सरदार परमजीत सिंह दिल्ली के लोधी कॉलोनी में पले-बढ़े, उनके पिता एक सिविल सर्वेंट थे और उनके पास सरकारी आवास था। वे एक अच्छे मध्यम वर्गीय परिवार थे।
पढ़ाई के लिए दयाल सिंह कॉलेज गए और फिर अपना खुद का व्यवसाय शुरू किया। एक समय वह ब्रांड रसना के एकमात्र वितरक थे।
लाजपत नगर में बड़ा गोदाम था, 7-8 ऑटो पूरी दिल्ली में रसना पहुंचाते थे। हर मार्केट में उनकी पहचान थी। जीवन बहुत अच्छा था।
फिर 1984 में सिख विरोधी नरसंहार हुआ, उन्होंने अपना पूरा गोदाम, 8 ऑटो और डीलरशिप खो दी।
विभिन्न खाद्य कंपनियों एचएलएल, नेफेड, मार्केटिंग के साथ काम करने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी।
उन्होंने एक टैक्सी खरीदकर और उसे चलाकर अपना जीवन फिर से शुरू किया, हमेशा एक शानदार सफेद वर्दी में। 6-7 साल बाद मसूरी से नीचे आते समय उनका भयानक एक्सीडेंट हो गया।


13 दिनों तक कोमा में थे, देहरादून के एक अस्पताल में घुटनों, पसलियों और एक हाथ कुचले हुए हालत में जागा।
सफदरजंग अस्पताल के डॉक्टरों ने उसे 3 महीने में फिर से स्वस्थ कर दिया, 3.5 महीने की फिजियो और एक्सरसाइज के बाद।
वह फिर उठे लेकिन कार पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुकी थी। उन्होंने एक ऑटो खरीदा, लेकिन कुछ साल बाद उन्हें स्ट्रोक हुआ।
समय लगा लेकिन वह पूरी तरह से ठीक हो गया, वह अब ऑटो चलाते है, कभी किसी यात्री को मना नहीं करते, ग्राहकों से धोखा खा चुके है लेकिन फिर भी मुस्कुराते है और विनम्रता से बात करते है।
इनकी कहानी पढ़ने के बाद, मुझे ऐसा लगता है चाहे आपका जीवन कितना भी कठिन क्यों न हो, आपको हमेशा मजबूत और आशावान रहना होगा। और मेरा विश्वास करो, हर बादल में एक आशा की किरण होती है।
सलाम सरदार परमजीत सिंह जी !

हर आदमी के अंदर एक गाँव होता है
जो शहर नहीं होना चाहता
बाहर का भागता हुआ शहर
अंदर के गाँव को बेढंगी से छूता रहता है
जैसे उसने कभी गाँव देखा ही नहीं
शहर हो चुका आदमी
गाँव को कभी भूलता नहीं है
बस किसी से कह नहीं पाता कि
उसका गाँव बहुत दूर होता चला गया है उससे
उसकी साँसों पर अब गाँव की धूल नहीं
शहरी कारख़ानों का धुआँ ससरता है
उसके कानों में अब मवेशियों के गले की घंटियाँ नहीं
तिगड़म भरी गाड़ियों की आवारा चिल्ल-पौं रेंगती है
हर आदमी जिसका गाँव शहर हो चुका है
उसका गाँव बौना होता चला जाएगा

अपने बाटों को मिटाते हुए
अहातों में किवाड़ें लगाते हुए
चौक पर पहरेदार बिठाते हुए
शहर को चिढ़ लगी रहती है कि
गाँव रुका हुआ है
वह बार-बार जाकर उसको टोकता है
खँगालता है खोदता है
उसके रुके हुए पर अफ़सोस प्रकट करता है
अपना बुशर्ट झाड़ता है
आँखों पर एक काला पर्दा चढ़ाता है
और दुरदुराते हुए निकल जाता है
हर आदमी जो गाँव लिए शहर होने चला आया है
वह नहीं जानता
शहरी तौर-तरीक़ों की ऊटपटाँग भाषा
और आवाज़ों की उलझनें
कि यहाँ कम बोलना होता है
कम खाना होता है
कम ओढ़ना होता है
कम सोना होता है
धीरे बोलनी होती है अपनी गँवई बोली
धीरे-धीरे खिसकानी होती है थाली
धीरे फटकनी होती है चादर
धीरे से माँगनी होती है नींद
ज़्यादा करनी होती है चापलूसी
ज़्यादा देना होता है धक्का भीड़ को
ज़्यादा बरतनी होती है औपचारिकता
ज़्यादा बघारनी होती है शेखी
ज़्यादा बजाने होते हैं गाल
ज़्यादा ख़र्च करनी होती है जीविका
हर आदमी जिसका गाँव किराए पर
बिताता है जीवन शहर में
एक सपना किस्तों में देखता है कि
किस्तें बरामद कर ढूँढ़ लेगा
गाँव तक जाने वाली सड़क
हर आदमी के अंदर का गाँव
लौटना चाहता है जहाँ से वह आया था
या उसे आना पड़ा था
आदमी भले लौटे न लौटे
गाँव लौटना चाहता है
शहर को वैसा ही छोड़कर
जो वह होना नहीं चाहता।
आदर्श भूषण