साहित्य

एक और प्रोफ़ेसर साहब का क़िस्सा, विख्यात धार्मिक फ़ासिस्ट संगठन के नेता भी थे जो अपने को राष्ट्रवादी सांस्कृतिक संगठन कहता था!

Kavita Krishnapallavi

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एक और प्रोफेसर साहब का किस्सा
आपको एक और प्रोफेसर साहब का बेहद दिलचस्प किस्सा सुनाती हूँ जो प्रोफेसर होने के साथ ही एक ऐसे विख्यात धार्मिक फासिस्ट संगठन के नेता भी थे जो अपने को राष्ट्रवादी सांस्कृतिक संगठन कहता था I शहर का नाम नहीं बताऊँगी!
ज़रूरत भी क्या है ! किस्सा सुनिए !

प्रोफेसर साहब के बारे में लोग बताते थे कि अगर वह विवाह करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश नहीं लिये होते तो राष्ट्र स्तर के शीर्ष नेताओं की कतार में शुमार होते! लंबे समय तक विश्वविद्यालय में भौतिक शास्त्र का प्रोफ़ेसर रहने और जर्मनी, स्वीडन, फ्रांस आदि देशों की यात्रा करके शोधपत्र पढ़ने और व्याख्यान देने के बाद, अब रिटायर हो चुके थे ! बहरहाल, फिर भी प्रांत स्तर के जाने-माने नेता तो थे ही ! बौद्धिकों को प्रशिक्षण देते थे और उस संगठन से जुड़ी राजनीतिक पार्टी के चुनावी उम्मीदवार चुनने में पूरे प्रांत में अहम भूमिका निभाते थे ! भरा-पूरा परिवार था, पर बच्चे साथ नहीं रहते थे ! दोनों बेटे विदेश में ऊँची नौकरियों में व्यवस्थित थे I बेटी की शादी हो चुकी थी। साथ सिर्फ़ पत्नी रहती थीं!

बहरहाल, भरपूर उम्र जीकर एक दिन वह प्रोफ़ेसर साहब इस दुनिया से चलते बने Iअंतिम संस्कार में विदेश से आ पाने में दोनों बेटों ने और बेटी-दामाद ने असमर्थता जाहिर कर दी I फिर सारा दायित्व संगठन ने ही निभाया! नगर के नागरिकों की भारी भीड़ अंतिम यात्रा में शामिल हुई I पूरे संगठन ने शोक मनाया I केन्द्रीय नेताओं से भी शोक-सन्देश आये I अंतिम-संस्कार के बाद, जब शहर में कई औपचारिक शोकसभाएँ हो चुकी थीं, प्रोफ़ेसर साहब के घर पर उनके कुछ नज़दीकी स्थानीय नेता और कार्यकर्ता जुटे ! आंटीजी के सामने वे अलग से शोक-संवेदना प्रकट करने आये थे ! आंटीजी तक़रीबन 75 की उम्र पार कर रही थीं ! नज़दीकी लोगों तक ने उनकी आवाज़ भी कम ही सुनी थी। बस, चुपचाप, तत्परता के साथ हरदम उन्हें प्रोफ़ेसर साहब की और आगंतुकों की सेवा करते हुए ही देखा था।

ड्राइंग रूम में कुछ देर इंतज़ार करने के बाद आंटीजी अन्दर से बाहर आयीं I सभी ने खड़े होकर अभिवादन किया I अभिवादन स्वीकारते हुए आंटीजी ने प्रोफ़ेसर साहब की बेंत की कुर्सी को कोने से एकदम बीच में घसीटा और उसपर ठसके के साथ बैठ गयीं ! सामने पडी टेबल पर उन्होंने पैर फैला दिए और कुर्सी के दोनों हत्थों को उँगलियों से बजाने लगीं ! सबलोग उनकी इन अटपटी हरक़तों को हक्का-बक्का होकर देख रहे थे I आंटीजी ने साज-सज्जा भी कुछ बेढब सी ही कर रखी थी I भारी और चटख रंगीन साड़ी पहन रखी थी I बाल करीने से सजे हुए, आँखों में काजल, होठों पर लिपस्टिक !

कुछ देर चुप्पी सी छाई रही, फिर आंटीजी बोलीं,”हो गयी शोकसभा-वोकसभा न ! अब ? अब तुमलोग किसका दरबार करोगे ? कुछ पता चला ? अब इधर काहे को आये हो ?” कुछ देर एकदम किंकर्त्तव्यविमूढ़ता वाली चुप्पी छाई रही I फिर एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने प्रोफ़ेसर साहब की अच्छाइयों और महानता के बारे में गला साफ़ करते हुए कुछ कहने की शुरुआत की I अभी उसने कुछ ही वाक्य बोले थे कि आंटीजी ने हाथ उठाकर तेज़ आवाज़ में उसे रोक दिया I बोलीं,” अरे बस भी करो चमचो ! मेरी चमचई करने से कुछ भी नहीं हासिल होगा I जल्दी भागकर किसी नये गुरु के चरण छान लो ! और तुम्हारा प्रोफ़ेसर ? मुझसे, उसकी पत्नी से, तुम उसकी महानता बखान रहे हो ? मुझसे बेहतर कौन जानेगा कि वह कितना बड़ा कमीना, पाखंडी, लम्पट और जालिम था ! मैं बता सकती हूँ कि उसने अपनी ही पार्टी के कितने लोगों को ठिकाने लगवा दिए और कितनों के परिवार तबाह कर दिये ! तीस साल पहले शहर में जो दंगे हुए थे, उस दौरान एक इमारत में कुछ लड़कियाँ बंद करके रखी गयी थीं जिनको बाद में मारकर पश्चिम वाले नाले में फेंक दिया गया था I उनकी हत्या से पहले इंसानी गोश्त का स्वाद चखने तुम्हारा गुरु भी तो वहाँ गया था! तुमलोग नहीं जानते ? अपनी रिसर्च स्कॉलर लड़कियों पर तो आदमखोर भेड़िये की तरह निगाहें टिकाये रहता था I जो हत्थे नहीं ही चढ़ पाती थी, या तो उसका रिसर्च कभी नहीं पूरा होता था या फिर वह खुद ही छोड़कर चली जाती थी I (हँसते हुए) एक बार एक ने तो उसका मुँह ही नोच लिया था ! कई दिनों तक बीमारी का बहाना किये मुँह छिपाए घर में पड़ा रहा I लेकिन एक बात तो तुमलोगों को ज़रूर पता होगी I तुम्हारे प्रोफ़ेसर साहब को जितना लड़कियों का शौक़ था, उतना ही कमउम्र लड़कों का भी शौक़ था ! बस इंसानी गोश्त चाहिए था, नाज़ुक और लज़ीज़ !”

कुछ देर रुककर आंटीजी हाँफती रहीं, फिर बोलीं,”मैंने शुरू-शुरू में उसकी इन आदतों का विरोध भी किया I नतीज़ा जानते हो ? यह देखो !” आंटीजी उठीं और पीछे मुड़कर अपना जम्पर उठा दिया ! पूरी पीठ बेल्ट या कोड़ों की पुरानी चोटों से काली पड़ी हुई थी ! फिर बैठकर वह कहने लगीं,” कई बार सोचा कि घर छोड़कर चल दूँ, पर जाती कहाँ ? मायके में सिर्फ़ चचेरे भाई थे, वहाँ कोई ठिकाना मिलना नहीं था ! पढाई-लिखाई इतनी थी नहीं कि कहीं किसी दूसरे शहर जाकर पेट पाल लेती I आत्महत्या करने की हिम्मत नहीं हुई, दो छोटे-छोटे बच्चे थे I उन्होंने कीड़ों जैसा कायर बना दिया I और बड़े होकर खुद भी वे हद दर्जे के दब्बू-डरपोंक निकले I बाप की सारी हरक़तें कुछ-कुछ तो जानते ही थे, पर उसके सामने पूँछ सटकाये रहते थे I फिर वे बाहर हॉस्टल में रहकर पढ़ने लगे I वे जानते थे कि अगर वे विरोध करेंगे तो बाप उनकी पढाई का पैसा देना तो बंद ही कर देगा, मर्डर तक करवा सकता है I गीदड़ हैं मेरे बेटे, एकदम गीदड़ ! कायर और कमीने, अपने बाप की ही तरह !”

ड्राइंग रूम में जैसे बिजली गिर चुकी थी । सभी सिर झुकाए बैठे थे I बीच-बीच में एक-दूसरे को चोर निगाहों से देख लेते थे I आंटीजी फिर अंगड़ाई लेती हुई बोलीं,”तो अब चलो भैया ! तुमलोग अपना धंधा-पानी देखो ! अब मुझे भी थोड़ा चैन से जीने दो और थोड़ी मस्ती करने दो ! चलो-चलो !”

जल्दी ही शहर में यह चर्चा फ़ैल गयी कि आंटीजी का दिमाग़ फिर गया है ! गहरे शोक से दिमागी शॉक लग गया है I संगठन के कुछ कार्यकर्ता उनके घर के आस-पास लगातार यह देखने के लिए तैनात रहते थे कि आंटीजी से मिलने कोई पत्रकार या कोई ख़ुराफाती आदमी न पहुँच जाए I पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक महीने के एकांतवास के बाद एक दिन आंटीजी भी चल बसीं I झाडू-पोंचा करने वाली से मोहल्ले वालों को पता चला I कुछ दूर के रिश्तेदारों, पार्टी कार्यकर्ताओं और मुहल्लेवालों की उपस्थिति में आंटीजी का अंतिम संस्कार हो गया I बेटे इस बार भी न आ सके I आंटीजी के लिए भी संगठन ने एक शोकसभा की जिसमें उनके निःस्वार्थ सेवा-भाव की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी ।

शहर के एक मुख्य चौराहे पर जहाँ प्रोफ़ेसर साहब की आदमकद प्रतिमा लगी, उसी से कुछ दूर, एक छोटे चौराहे पर आंटीजी की भी एक छोटी आवक्ष प्रतिमा स्थापित की गयी।