इतिहास

उन्हें कुंजरा कहा जाता है वे पशुपालन खेती और व्यापार से जुड़े हैं : मुसलमानों की राईन जाति जिसे अशरफ़िया समूह ने ”कुंजरा” नाम दिया!

Ali Rahat
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राई (कुंजड़ा )

मुसलमानों की अन्य कामकाजी जातियों की तरह राईन भी एक कामकाजी जाती है । जिसका काम फल सब्जी मेवा इत्यादि की पैदावार करना और उसको बेचना है राईन जाति जिसके खुद्दार होने की वजह से अशरफिया समूह ने इसको कुंजरा नाम दे दिया और इस जाति के अंदर घोर अशिक्षा के कारण इनके पूर्वजो’ ने कुजङा नाम को अपने पहचान के तौर पर स्वीकार भी कर लिया।

इस जाति के लोग भारत के हर हिस्से में आबाद है इसकी एक बड़ी आबादी पाकिस्तान और नेपाल में भी पाई जाती है कुंजरा जाति का व्यवसाय आरंभ से ही व्यापार पशुपालन और खेती रहा जिस कारण आम जनजीवन से इसका सीधा , प्रत्यक्ष और ठोस लगाओ रहा । यहां के ज्ञान और रीति-रिवाजों का भी प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा (अरबी बोली ) अलराई (मानक अरबी भाषा) राईन (ईण्डो इरानी भाषा ) से कुंजङा नामकरण तक भारतीय परिवेश के प्रभाव को अंगी भूत करना समय अंतराल की मांग रही जिसे स्वीकार करना आवश्यक था। अलग-अलग जगहों पर विभिन्न नामों से इसे जाना जाता है कहीं बागवान तो कहीं सब्जी फरोश तो कहीं और राई तो कहीं कुजरा नाम से पुकारा जाता है इस जाति के लोग आमतौर से दूसरे के सामने हाथ नहीं फैलाते हैं बल्कि मेहनत मजदूरी व काश्तकारी कर अपनी जिंदगी गुजारते हैं इस जाति की महिलाएं भी अपने घर के मर्दों के साथ मिलकर खेत खलियान और बाजार हर जगह रोजगार करने के साथ-साथ रहती है जिस कारण कुछ लोग इस को बुरी नजर से देखने से इस को बुरी नजर से देखते हैं,

अब जबकि महिलाएं सशक्तिकरण की बात सामने आने लगी है और गैर मुस्लिम क्या सभी मुस्लिम जाति चाहे वह उच्च हो या पिछड़ा सभी जात की महिलाएं विभिन्न जगहों पर यथा बाजार स्कूल और दफ्तर इत्यादि में अपने सुविधानुसार काम कर रही हैं तो सिर्फ राय जाति की महिलाओं के ऊपर ही छींटाकशी क्यों ?

बल्कि महिलाओं को पुरुषों के समतुल्य होने का दर्जा सिर्फराईन जाति के अंदर ही देखने को मिलता है

* राईन * शब्द अरबी भाषा के राई शब्द से लिया गया है जिसका शाब्दिक अर्थ पहलवान लड़ाकू और चरवाहा से होता है । यह जाति लड़ाकू और मेहनत करने वाली जाती रही है ।भारत में राईन समुदाय का आगमन पहले पहल इस्लाम धर्म के प्रचार प्रसार के लिए हुआ और यही कारण रहा कि मोहम्मद बिन कासिम के भारत आगमन ( कुछ विद्वानों की राय है कि मुसलमानों का पहला समूह मो0बिन कासिम के साथ आया था ) से भी 76 वर्ष पूर्व 636 ई0 में ही हजरत अबुल आस आमील यमनी राईनी लगभग चार हजार यम्मी बहादुरों के साथ भारत में इस्लाम धर्म के प्रचार प्रसार के लिए आए । यह इस्लाम धर्म के दूसरे खलीफा हजरत उमर फारूक रजि 0 का जमाना था बाद में अब्दुल मलूक खलीफा के दौर पर अब्दुल मलूक खलीफा के दौर में 712 ई0 में मोहम्मद बिन कासिम ने 6000 राईनी यमनी फौज के साथ हिंदुस्तान पर विजय प्राप्त की उस समय राइन फौज का कमांडर सरदार हलीम राईन थे , जो बुजुर्ग बली थे और सलीम राईन के विभिन्न ग्रंथों के अनुसार इराक के गवर्नर इज्जाज के शासनकाल में

712 ई0″में सिंध पर अरबों की विजय से अरिहा (सीरिया) के 3500 अल्ला इन सैनिकों अलराई सैनिकों का निवास स्थल सिंध बहमनाबाद , आलोर, चचा, मुल्तान अलमंसूरिआदि बना । अल राईन कबीला का अरबी क्षेत्रों से आना और भारत में स्थाई रूप से बसने का क्रम में चलता रहा बाद में वह पंजाब उत्तर भारत और पूर्वी भारत के क्षेत्रों में बसने बसते चले गए ।

पाली भाषा के धर्म रक्षिता में लिखा है – ” यमन के व्यापारियों का समूह शुरप्राका में व्यापार के लिए हमेशा आते रहते हैं । कुछ व्यापारी इस क्षेत्र में स्थाई रूप से निवास करते हैं । उन्हें कुंजरा कहा जाता है वे पशुपालन खेती और व्यापार से जुड़े हैं ।

मोहम्मद जैनुल आबदीन लिखते हैं * पुस्तक वाकयात-ए – राईन * के अध्ययन से पता चलता है कि मुसलमानों ने विजयी रूप से भारत में पहला कदम 712 ई0में मोहम्मद बिन कासिम के साथ रखा था इसमें 6000 यम्मी सिपाही शाही फौज के तौर पर आई थी जो राईन कबीला से थे । विदित हो कि राईन जाति का भी मूल स्थान अरब प्रायद्वीप का यमन राज रहा है भारत में आने के बाद उसकी हालात बद से बदतर होती चली गई साथ ही भारत के गैर मुसलमानों के जरिए इस्लाम धर्म अपनाए जाने के क्रम में यहां की छोटी जाति के लोगों के द्वारा जब इस्लाम धर्म अपनाया गया ऐसी परिस्थिति में राईन के जैसे काम धंधा करने वाले वह सब लोग भी धर्म परिवर्तन के बाद राईन कहलाए दूसरी मुसलमानों की तरहराईन भी थोड़ी संख्या में बतौर सिपाही के अरब में आए हैं ।।प्राचीन काल में यमन में एक बहुत ही विख्यात कबीला था । जिसका नाम अरिहा था । इस कबीले के लोग बहादुर और मेहनती थे इन लोगों का अपना एक स्वतंत्र राज्य था ।वहां के लोग आमतौर से खेती करते थे और अनाज की खरीद बिक्री किया करते थे

पशुपालन बड़े पैमाने पर करते थे । इन लोगों की बहादुरी और असर का यह हाल था कि जिस पहाड़ पर यह लोग अपना मवेशी चढ़ाया करते थे उस पहाड़ का नाम ही जबल -ए-राईन हो गया ।

सिंध पर जिस अरबी फौज ने मो0 बिन कासिम के साथ विजय प्राप्त किया था उसमें इराकी , शामी यमनी और हजारी अफसर थे इन चुने हुए सरदारों और योद्धाओं में शाम के रहने वाले अरिहा कबीला के योद्धाओं की बड़ी संख्या थी जो अराई के ही पूर्वज थे राइन समुदाय उन अरबों से हैं जिन्हें मोहम्मद बिन कासिम के साथ सिंध पर विजय प्राप्त किया था अपने अरब साथियों में यह लोग राई या अलराई के उपनाम से पुकारे जाते थे यही शब्द राई है जो बाद में बदल कर राईन बोला जाने लगा । * तारीख-ए-फरिश्ता * में भी “राई “शब्द ही लिखा गया है कुछ दिनों के बाद इत्तफाक ऐसा हुआ कि खलीफा अब्दुल मलूक की मृत्यु हो गई जिसमें मोहम्मद बिन कासिम को हिंदुस्तान भेजा गया था मलूक की जगह सुलेमान खलीफा बनाए गए जिसने बिन कासिम को चारित्रिक पतन का इल्जाम लगाकर वापस बुलाकर उसकी हत्या करवा दिया । क्योंकि खिलाफत बनू उम्मीया’ से बने अब्बास के हाथों में चली गई थी । यही कारण था कि राईन और दूसरे अरबों दूसरे अरबी सिपाही जो बिन कासिम के साथ सिंध आए थे उन लोगों को वापस आने के उन लोगों को वापस आने से मना कर दिया और अंततोगत्वा राईन कबीला के लोगों को भी सि’ध में ही जाना पड़ा । राईन दूसरी अरबी शहर को छोड़कर पर्वतीय क्षेत्रों में रेगिस्तान में चले गए और वहीं आजाद जिंदगी गुजारने लगे 750 ई0 तक सिंध पर खिलाफत अब्बासिया की पकड़ मजबूत हो गई और इस जमाने में राईन कबीला के लोगों पर मुसीबतों की पहाड़ टूटी और वह वहां से निकलकर पंजाब के अलग-अलग जगहों पर आबाद हो गए पंजाबी भाषा के प्रयोग और इसके ढंग ने इसे अरिहा से अराई बना दिया ।

मोहम्मद तुगलक के खिलाफ जब अशराफ और आलिमों ने बगावत बुलंद किए और इस्लामी हुकूमत को खतरा में डाल दिया तब सुल्तान मोहम्मद तुगलक ने राईन और दूसरे मूल हिंदुस्तानी मुसलमानों को तलाश किया और इन लोगों को राजपाट में शामिल किया किसी को दीवान बनाया और किसी को सूबेदार बनाया इस बगावत में इस बगावत के संदर्भ में सुल्तान मोहम्मद तुगलक मुल्तान से दिल्ली आकर बागियों और बगावत को हवा देने वालों का पता लगाया तो बहुत से उलमा सादात और शैयुख मुजरिम साबित हुए विदित रहे कि सुल्तान मोहम्मद तुगलक के विरुद्ध बगावत मुसलमानों के उच्च वर्ग के द्वारा ही किया गया था ।तब जाकर तुगलक ने मुसलमानों के विभिन्न वर्गों का सहारा लेकर इस बगावत को रोकने में सफल हुए सुल्तान मोहम्मद तुगलक ने अजीजुद्दीन कलाल को धार्मिक ज्ञान में महारत को देखते हुए अजीजुल मुलुक का पद दिया और सूबेदार भी बनाया बालूनायक जोलाहा को जागीर देकर निजाम बनाया कई राईन यानी मसूद बागवान और मिकाईल बागवान को बड़े-बड़े पद दिए साथी मुल्ला पीर मोहम्मद माली को वजीर बनाया (मंत्रालय दिया )।


मुगल बादशाह का भी राईन समुदाय के साथ बिहार अच्छा नहीं था उसकी वजह यह थी कि मुगल बादशाह बाबर ने खरासान पर अपना कब्जा जमाना चाहता वहां राईन कबीला का सरदार जुबेर राई ने अपने लोगों के साथ बराबर का मुकाबला किया यही कारण था कि राईन समुदाय के लोग जो कभी शाही फौज के तौर पर भारत आए थे मुगल बादशाह का समय आते ही आते शाही मजदूर बन गए और जैसे अंग्रेजो के समय में चाय बागवान में कुली भर्ती किए जाते थे उसी तरह मुगल बादशाह के समय इनको एक राज्य से दूसरी राज्य में बाग लगाने ,खेतों में साग सब्जी लगाने ,के लिए राजसत्ता की तरफ से भेजा जाने लगा मुगल बादशाह आलम के समय में बहुत से राईन को लाहौर और दिल्ली से पटना लाकर आवाद कराया गया ताकि उससे साग ,सब्जी में भी फल इत्यादि का उत्पादन कराया जाए और बेचवाया जाए

ऐतिहासिक ग्रंथों और प्रमाणिकअभिलेखों से यह स्पष्ट है कि कुंजङा जाति भारत की एक प्राचीन मुस्लिम जाति है । दक्षिण अरब क्षेत्रों से व्यापार के लिए इनका समूह हमेशा आता रहा है धीरे-धीरे स्थाई रूप से यहां बसते चले गए उन्होंने पशुपालन खेती और व्यापार को जीवकोपार्जन का साधन बनाया अरबी संस्कृति के परिवेश में रहकर क्षेत्र के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई भारतीय जीवन में तापस तारतम्य से भारतीय संस्कृति का भी प्रभाव उनकी जीवन पर पड़ा जो स्वभाविक था शमशुल हक अपनी पुस्तक बैकवर्ड मुस्लिम इन बिहार( BACKWARD MUSLIM IN BIHAR) में लिखते हैं कि 1754 ई0 के बाद मुगल बादशाह द्वारा राईन जाति की पर जुर्म बढ़ गया और इसी इतना प्रताड़ित किया गया कि वह अलग-अलग स्थानों से उत्तर बिहार और नेपाल के सरहद के इलाकों में जाकर आबाद होने लगे वर्तमान में जिसे नेपाल का तराई और मिथिला कहा जाता है ।

इस समुदाय मे अनगिनत साहाबा, औलिया इत्यादि भी हुये हैं । हजरत सैफ-नेमालिक, हजरत इबन-ए-काल हजरत अबु सईद इत्यादि तो वही हजरत सिवान राय हजरत हबीब राईन हजरत सलीम राई ओवैस कर्णी, हजरत शाह इनायत कादरी इत्यादि औलिया भी गुजरे हैं हजरत सलीम राई बहुत बड़े बुजुर्ग थे और हजरत इमाम शफई के गुरु भी थे इनका बेटा हजरत हबीब राई भी वर्ली थे ।

हजरत सैयद बुल्ले शाह उत्तर भारत खासकर पंजाब के बड़े सूफी कवि गुजरे हैं सैयद बुल्ले शाह के परिवार के सदस्यों को इस बात का दुख था कि जिस सैयद कुल के पूर्वजों ने समस्त मानव जाति को नया रास्ता दिखाया उसी के एक सदस्य ने निम्न जाति पढ़ाई के हजरत इनायत शाह कादरी को अपना मुर्शीद बनाया हजरत इनायत शाह कादरी का डेरा लाहौर में था वे बागवानी और साग सब्जी खेती करते थे वह हजरत शाह मोहम्मद सत्तारी कादरी लाहौरी मुरीद थे और इनायत शाह कादरी के मुरीद बुल्ले शाह थे बुल्ले शाह की बहने और भाभी या उन्हें इनायत शाह को अपना मुरीद मानने से रोकती थी बुल्ले शाह ने अपने परिवार जनों के साथ हुई तकरार का वर्णन इन शब्दों से किया है।

बुल्ले नू’ समझावण आइ’या
भैणा ते भरजाइया’
“मन लैब बुल्लिआ साडा कहा
छड दे पल्ला, राइया’
आल बनी औलाद अली नं
तू क्यों लीका’ लाइया’ ?
( अनुवाद – बहीने’ और भाभिया बुल्ले शाह को समझाने आई हैं और -कहने लगी’

” बुल्ले शाह हमारा कहना मान लो और अराई का साथ छोड़ दो तुम तो नबी के खानदान से हो और अली के वंशराज हो फिर क्यों अपने पूर्वजों की लोक निंदा का कारण बनते हो ” ) ।

किंतु बुल्ले शाह के दिल में अपने मुर्शीद के प्रति प्रेम श्रद्धा का भाव था और वे जातीय भेदभाव को सर्वथा त्याग चुके थे उन्हें अपने परिवार वालों को जो उत्तर दिया वह यह देखें –

जेहार सानू’ सैय्यद आखे
दोजख मिले सजाया
जो कोई सानू’ राई आखे
भिश्ती पी’गा पाइ’या
(अनुवाद -जो कोई हमें सैयद कहेगा उसे दोजख की सजा मिलेगी और जो हमें राई कहेगा वह बहिश्त में झूला झुलेगा । )

बाद के दिनों में कई दूसरे देशों से मुसलमान भारत आए और जो लोग यहां पर पहले से हुकूमत कर रहे थे उनको पराजित किया । अपने साथियों को पद और राज सौ’पा किसी को हाकिम और किसी को वजीर बनाया साथ ही राज्य के साथ जागीर भी दिया जो पीढ़ी दर पीढ़ी उसके खानदान के लोगों को मिलता रहा जिसके कारण हिंदुओं की तरह मुसलमानों भी दो भागों में बैठ गए एक वह जो राजसत्ता के चिपके हुए थे और बड़े-बड़े पद पर थे दूसरे वह लोग जिसको राज सत्ता से दूर रखा गया और यह लोग अपना जीवन गुजारने के लिए कास्तकारी या मामूली किस्म का व्यवसाय और काम धंधा करते थे । जारी ,-‘—‘दुसरे दिन ईन्शाअल्लाह