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इस क़िले को 1734 में जयपुर के बनाने वाले महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय ने बनवाया था!

अरावली की पहाड़ियों पर जम कर बैठा हुआ नाहरगढ़ का किल्ला जयपुर शहर की शानो-शौकत और उसके बदलते वक्तों का खामोश गवाह रहा है। इतिहासकार एमिली हॉन अपनी किताब “राजस्थान: द डेजर्ट किंगडम ऑफ द प्रिंसेस” में लिखती हैं कि इस किले को 1734 में जयपुर के बनाने वाले महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय ने बनवाया था। हॉन बताती हैं कि इस किले को पहले सुदर्शनगढ़ कहा जाता था। ये दो काम करता था – एक तरफ ये शहर की रखवाली करने वाला एक ज़रूरी चौकीदार था तो दूसरी तरफ ये राजा के लिए आराम करने की जगह भी था.

सालों दर साल इस किले की कहानी बदलती रही। इतिहासकार विलियम बार्टन “द फॉरगॉटन फोर्ट्स ऑफ इंडिया” में लिखते हैं कि दूसरे किलों के उलट, नाहरगढ़ पर सीधा हमला कभी नहीं हुआ।

नाहरगढ़ की बनावट देखने से ही पता चल जाता है कि ये किस मकसद से बनाया गया था। जैसा कि वास्तुकार जॉर्ज मिशेल ने “हिंदू आर्किटेक्चर: इवॉल्विंग ट्रैडीशन्स इन इंडिया” में लिखा है, ये किला राजपूत शैली में बना हुआ एक मजबूत सैनिक किला है। ऊंची दीवारें, हर तरफ देखने को मिलने वाले बुर्ज और कई दरवाज़े, ये सब इसकी मज़बूती को दिखाते हैं। मगर 19वीं सदी में सवाई माधो सिंह द्वारा बनवाया गया माधवेंद्र भवन महल का होना यहां की शान में चार चांद लगा देता है। मिशेल बताते हैं कि ये महल, रानियों के रहने के लिए नौ कमरों और राजा के लिए एक बड़े कमरे वाला है, जो राजपूत और मुग़ल शैली का मिश्रण दर्शाता है। ये बात दीवारों पर बनी हुई नक्काशी और रंगीन शीशे की खिड़कियों को देखने से साफ पता चलती है।

एक और दिलचस्प बात, जो अक्सर बताई नहीं जाती है, वो है इस किले का वक्त बताने का खास तरीका। इतिहासकार चंद्रमणि सिंह अपनी किताब “जयपुर क्रॉनिकल” में बताते हैं कि एक खास समय पर किले से तोपें दागी जाती थीं ताकि लोगों को वक्त का पता चल सके। ये तरीका अब भले ही इस्तेमाल ना होता हो, मगर ये किले के इतिहास में एक अनोखी बात जरूर है।