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इस कहानी का अंत इतना सुखद नहीं है जितना कि फ़िल्म ”नदिया के पार” में दिखाया गया है!

ओमकार (इन्द्र ठाकुर) का विवाह वैद्य की बड़ी पुत्री रूपा (मिताली) के साथ विवाह हो जाता है और वो एक खुशी जीवन की शुरूआत करते हैं। रूपा एक बच्चे को जन्म देती है। रूपा की गर्भवती होने के दिनों उसकी छोटी बहन गुंजा (साधना सिंह) उसके साथ रहने के लिए आती है। इसी समय उसे ओमकार के छोटे भाई चन्दन (सचिन) से प्यार हो जाता है।

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नदिया के पार फ़िल्म की कहानी मशहूर लेखक और उपन्यासकार केशवप्रसाद मिश्र जी के उपन्यास ‘कोहबर की शर्त’ पर आधारित थी, जिसमे पूर्वी उत्तर प्रदेश के दो गाँवो के जन-जीवन और उसकी संस्कृति के साथ साथ उसकी संवेदना को भी बड़ी ही आत्मीयता के साथ चित्रित किया गया है। हालांकि केशव प्रसाद मिश्र द्वारा रचित उपन्यास “कोहबर की शर्त” कुल चार खंडों में प्रकाशित हुआ था लेकिन इस उपन्यास के शुरुआत के दो खंड की ही कहानी को फिल्मी रूप देकर फिल्म “नदिया के पार” में दर्शाया गया।

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राजकमल प्रकाशन द्वारा वर्ष 1965 में प्रकाशित इस उपन्यास की कहानी का अंत इतना सुखद नहीं है जितना कि फिल्म नदिया के पार में दिखाया गया है।

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फ़िल्म के अंत में जहाँ नायक चंदन और नायिका गुंजा का मिलन दिखाया गया है, वहीं मूल उपन्यास में ऐसा नहीं है उसमें गुंजा का विवाह चंदन के बड़े भाई ओमकार से ही होता है और गुँजा चंदन की भाभी के रूप में उसके घर आती है। समय गुज़रता है पहले काका की मृत्यु होती है और कुछ दिनों बाद गाँव में फैली महामारी से ओमकार की भी मृत्यु हो जाती है।

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गुँजा के पिता यानि वैद्य जी गुँजा को अपने साथ लेकर चले जाते हैं लेकिन कुछ ही दिनों में गुँजा वापस लौट आती है और अपने पुराने प्रेम की याद दिला कर चंदन से विवाह का प्रस्ताव रखती है जिसे चंदन ठुकरा देता है।

चंदन द्वारा ठुकराये जाने पर पहले से टूटी गुँजा भीतर ही भीतर और टूटने लगती है और एक दिन उसकी भी मृत्यु हो जाती है। बेहद ही दर्दनाक अंत के साथ ख़त्म हुई इस कहानी में परिवर्तन के लिये बाकायदा ताराचंद जी ने लेखक केशव प्रसाद जी से इजाज़त माँगी थी।

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हालांकि इस उपन्यास पर फिल्म बनाने के लिये केशव जी ने ताराचंद जी को पहले यह कहकर मना कर दिया कि “किसी रचनाकार के लिये उसकी रचना उसके बच्चे की तरह होती है। आप मेरी कहानी को अपने हिसाब से काट छाँट कर बनायेंगे, फिर उस कहानी की आत्मीयता को भी हर कोई बिना समझे फिल्म नहीं बना सकता।” ऐसे में ताराचंद जी ने उन्हें आश्वासन दिया कि बिना उनकी इजाज़त के कहानी में कोई बदलाव नहीं होगा।

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𝐒𝐡𝐢𝐯𝐤𝐮𝐦𝐚𝐫 𝐃𝐡𝐚𝐤𝐚𝐝
@ShivrajDhakad
#पूरा_जरूर_पढ़ें…

जब ये फिल्म “नदिया के पार” आई होगी अथवा चौबेपुर की गुंजा जैसी चंचल और चुलबुली लड़की किसी चंदन के प्यार में जब पड़ी होगी तब जमाने भर के लड़के चंदन बने फिरते होंगे और जमाने भर की लड़कियाँ खुद को आईने में संवारते हुए खुद को गुंजा देख रही होंगी…

तब प्रेम में प्रतिबद्धता होती होगी,कोई चंदन अपने गाँव के रज्जो से काम चलाऊ हवस वाला प्रेम नहीं कर पाया होगा,
वो नदी के उस पार वाली गुंजा से मिलने और चार बात बतियाने को लालायित रहता होगा…
गुंजा जैसी कोई लड़की चंदन को उसके बर्तन पे नाव चढ़ाने के बदले भले गाँव का रास्ता भटका देती होगी,चंदन के जख्म पे लगाने के लिए लेप के बदले धनिया-मिर्च की चटनी ले आई होगी, उसके नाव को गाँव की लड़कियों के साथ डूबा दी होगी, पर हां आज के जमाने की लड़कियों की तरह थप्पड़ मारना मुनासिब नहीं समझी होगी…

अलग बात है तब चंदन और ना ही उस गुंजा को पता होगा कि वो उसके भईया की साली बन जाएगी और वो चंदन उसके पहुना का भाई। चंदन को भी नहीं पता था कि बैद्य जी के यहाँ की औषधी के बिना उसके रोग का इलाज ही संभव नहीं होगा…
और तो और उस भोले चंदन को ये भी कहाँ मालूम था कि कोहबर में हारे शर्त का उधारी गुंजा कभी और चुकाएगी ये कह के कि,अब आना तो डोली लेके आना,, अइसे चौबेपुर मत आना…

उस बलिहार वाले चंदन के पास बैलगाड़ी है, गुंजा को बिठा के ऐसे चलते जाता है मानो बियाह के अपनी मेहर ले जा रहा हो। उस चंदन के पास बोलेरो के साथ वो बाजा भी नहीं है जिसमें “चोलिए में अटकल परान” बजे और वो गुंजा को ऑफेंड होते देखे…

उस समय भईया चंदन के पास बैलगाड़ी है, कोस भर का राह है,चिलचिलाती धूप है,और धूप से खुद को बचाती अपनी चुनरी से सर ढकती हुई गुंजा है और गुंजा के गले में माँ सरस्वती का वास है जिसका अंदाजा चंदन बियाह के दिन मड़वा में सखीयों के साथ गीत गाती गुंजा के गीत से ही लगा चुका था, इसलिए चंदन वो बात याद दिलाते हुए गीत की फरमाईस करता है, और गुंजा पहली दफ़ा शरमाना सिखती है, और शरमा के कहती है “अकेली थोड़ी ना गा रही थीं, सखीयों के साथ गा रही थीं उस दिन तो…
फिर चंदन के निहोरा पर वो गुनगुना उठती है, और वो गीत आज तक लोगों के हृदय में बसा हुआ है.”कवन दिशा में लेके चला रे बटोहिया, कवन दिशा में”…

कितना प्यारा और निश्छल होता होगा ना तब के जमाने का प्रेम, चंदन और गुंजा के जमाने वाला प्रेम, जहाँ ना कोई शर्त, ना कोई बंधन, बंधन बंधता भी था तो जीवन भर का…

एक बात कहूँगा इस जमाने में भी अगर उस चंदन की तरह गुंजा के माथे पे बींदी साटते देख कोई लड़का अपने महबूब खातिर बींदी खरीद के लिफाफा में सजा के रखता है तो सचमुच वो चंदन है, नदिया के पार वाला चंदन…
उसी शौक से अगर कोई लड़की अपने महबूब से माथे पे बींदी सटवाती है तो सच में वो गुंजा है,नदिया के पार वाली गुंजा..❤🥀