साहित्य

इस अभाव और ग़रीबी से निकलना है, तो शिक्षा की मशाल जलानी होगी, अन्यथा यहीं छटपटाते हुए जीवन व्यर्थ हो जाएगा

Madhu Singh
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“मम्मीजी, आप ज़रा चाचाजी को कुर्सी पर बैठने को कहिए, देखिए तो, लॉन में कैसे बैठे हैं.” बहू सुप्रिया के कहने पर मालती ने लॉन की ओर देखा काका भैरोमल आराम से घुटने तक धोती खिसकाए मूंगफली टूंगते हुए धीरे-धीरे तेल से घुटने की मालिश कर रहे थे. वो कुछ कहती उससे पहले मुकुंद की आवाज़ आई, “लाओ काका, मैं मल दूं तेल, आप तो बाजरे का खिचड़ा खाओ.” मुकुंद के हाथ से खिचड़े का कटोरा पकड़ते काका गदगद हो बोले, “इत्ता बड़ा आदमी हो गया म्हारा मुकुंद, पर ज़रा भी नहीं बदला, तू भी खा ना.”

“हां-हां मैं अपने लिए भी लाया हूं.” मुकुंद को बड़े स्वाद से चटखारे लेकर उंगली से खिचड़ा चखते देख सुप्रिया ग़ुस्से से भर गई. तभी, “अपने साहब कितने सादे हैं. सच कहें तो बिल्कुल अपने जैसे हैं… रोब-दाब बाहर ही रखते हैं…” किसी की फुसफुसाहट पर सुप्रिया ने पलटकर देखा कि घर सर्वेंट घास पर बैठे मुकुंद को अपने काका के घुटनों पर तेल लगाते और खिचड़े का स्वाद लेते विस्मय से बातें कर रहे थे. खिचड़ा कटोरे में सुड़कते काका के गंवईपन पर सुप्रिया ने माथा पकड़ लिया. चिंता में उसने आसपास देखा, पॉश कॉलोनी के लॉन का ये दृश्य सहज ही आसपास के घरों की बालकनी अथवा छतों से देखा जा सकता था.

लॉन में कल तक नज़र आनेवाले लॉन टेबल-कॉफी के कप-केतनी आज गायब थे. उन सबकी जगह वहां आज घास में आराम से लेटे काका और पास ही नीचे रखा खिचड़े का कटोरा नज़र आ रहा था. जिस ख़ूबसूरत लॉन में सुप्रिया पति मुकुंद के साथ आराम कुर्सी पर बैठी चाय-कॉफी की चुस्कियां भरती दिखाई पड़ती थी, वहां आज पति मुकुंद अपने भैरोमल काका के साथ घास पर पालथी मारे बैठे खिचड़ा खाते दिख रहे थे. आसपास के ऊंचे पदों पर आसीन सभ्य अभिजात्य समाज के लोग क्या देखते-सोचते होंगे कि कैसे गंवई रिश्तेदार हैं. सोच-सोचकर सुप्रिया की जान निकली जा रही थी. भैरामल काका से सगा तो क्या, दूर-दूर तक खून का रिश्ता नहीं है, फिर भी सास और पति का उनसे लगाव देख वह हतप्रभ थी.

हफ़्ता पूर्व ही एक दिन भैरोमल काका से मिलने की इच्छा मालती देवी ने ज़ाहिर की और मां की इच्छा का मान रखते हुए मुकुंद ने उन्हें फोन लगाया तो, “क्यों रे मुकुंद, इत्ता बड़ा आदमी हो गया कि अपने काका को ही भूल गया. जाने कब प्रभु तुझसे मिलाएंगे, मिलाएंगे भी या नहीं.” मन को छूती उनकी आवाज़ मुकुंद अनसुना नहीं कर पाए. अमेरिका जाने से पहले सहसा काका से मिलने की इच्छा जाग गई. बूढ़े हो चुके भैरोमल काका मुकुंद के पास आकर, उनसे मिलकर पुरानी यादों की ख़ुशबू से ख़ुद को सराबोर करना चाहते थे. मुकुंद ने सुप्रिया को समझाया, “भरतपुर से काका आ रहे हैं. मैं और मां ख़ुद ही भरतपुर जाकर मिल आते, पर उनकी बातों से लगा कि काका स्वयं यहां आना चाहते हैं. ऐसे में आने से मना करना सही नहीं होगा. उनके घुटने में दर्द रहता है, यहां किसी डॉक्टर को दिखा भी दूंगा.” यह सुनकर सुप्रिया ने साधारण प्रतिक्रिया दी, पर जब उसने काका के लिए अपने पति की चाल-ढाल में बदलाव देखे और भैरोमल काका का रहन-सहन देखा, तो वह कोफ्त में भर गई.

सरल स्वभाव भैरोमल को इस बात का भान भी नहीं था कि उनके आने से घर में कैसा बवंडर मचा है. छोटे से कस्बे से मुकुंद और उसके परिवार से मिलने की इच्छा लिए आए भैरोमल काका मुकुंद की तरक़्क़ी, उसकी सादगी और अपनत्व से भरे स्वभाव पर रीझे आह्लादित थे, पर सुप्रिया उनके जाने के दिन गिन रही थी. वो क्या आए, घर, घर ही नहीं रह गया. मुकुंद ने अपने ऊंचे ओहदे और रहन-सहन के सारे डेकोरम ताक पर रख दिए. भैरोमल काका को नरम बिस्तर पर नींद नहीं आती है, तो वह नीचे सख़्त गद्दा बिछाकर सो जाते हैं. वो सोए तो सोए, पर यहां मुकुंद भी तकिया रखकर उनके पास पंचायत जमा लेता है. सर्वेट के सामने अच्छा तमाशा बन जाता है. और तो और मुकुंद की पांच साल की बेटी चहक भी उनकी कस्बाई बोली की नकल उतारने लगी है. कॉर्नफ्लेक्स की जगह वह खिचड़ा और चूरमे की मांग करने लगी है.

मालती देवी अपने वर्तमान के सुनहरे दिनों के साक्षी भैरोमल काका को आह्वादित देख अपने घुटनभरे अतीत में डूब गईं, जब एक छोटे से कस्बे की पतली सी गली में उनका दड़बे सा एक कमरे का मकान ‘घर’ कहलाता था. अंधेरे, अभाव और घुटन के साथ वह उस घर में अपने पति और बेटे मुकुंद के साथ बंद थी. बचपन से ही मेधावी मुकुंद को उसके पिता ने एक ही घुट्टी बार-बार पिलाई थी, “बेटा, जो इस अभाव और गरीबी से निकलना है, तो शिक्षा की मशाल जलानी होगी, अन्यथा यहीं छटपटाते हुए जीवन व्यर्थ हो जाएगा. पिता की सीख को जीवन का सार बनाते हुए मुकुंद ने कड़े परिश्रम के साथ जीवन को सही दिशा दी. स्कॉलरशिप के माध्यम से वह शिक्षा के सोपान चढ़ता गया. कॉलेज के लिए स्कॉलरशिप के अलावा और पैसे की ज़रूरत पड़ी, तो पिता ने एक कमरे का मकान बेच दिया. मुकुंद के पिता ब्रजेश काका के पास उनकी किराने की दुकान पर काम करते थे. जब उन्हें पता चला कि उनके कर्मठ और ईमानदार कर्मचारी ब्रजेश ने बेटे की पढ़ाई के लिए एकमात्र पूंजी और सहारा अपना मकान बेच दिया, तो अपने घर में उन्हें शरण देते हुए कहा, “बेटे की पढ़ाई के लिए घर बेच दिया, तो लड़का ज़रूर होनहार होगा, जब तक कोई इंतज़ाम नहीं होता या फिर वह कुछ कमाई करके मदद नहीं करता, तब तक तुम दोनों हमारे घर रह सकते हो. पैसे से मदद नहीं कर सकता हूं, पर हां, सिर छिपाने के लिए मेरे घर के द्वार खुले है. बेटियां ब्याह गई हैं. बूढ़े-बुढ़िया घर में अकेले हैं, हमें कोई दिक़्क़त नहीं होगी, जब कमाई हो तब चले जाना.” काका के शब्द डूबते को तिनके का सहारा बने.

कॉलेज के शुरुआती दिनों में मुकुंद अपने माता-पिता से मिलने उनके घर ही आया करता था. हालांकि साल-डेढ़ साल में मालती देवी और उनके पति ने पास में ही एक कमरे का घर किराए पर ले लिया, फिर भी अधिकतर खाना-पीना, उठना-बैठना सब काका के घर पर ही होता तीज-त्योहार में पकवान वहीं बनते और साथ खाए जाते. कब वो सब एक प्रगाढ़ बेनामी रिश्ते में बंधे, पता ही नहीं चला.

मुकुंद कॉलेज वापस जाता, तो काकी गोंद के लड्डू और चिवड़ा बांध देतीं. वो भी क्या वक़्त था. नीचे दालान, एक कोठरी, एक बड़ा और छोटा कमरा और ऊपर एक कोठरी और बिना प्लास्टर का एक छोटा सा कमरा. छोटी सी छतवाला काका का मकान किसी हवेली से कम नहीं लगता था. उन चार-पांच सालों में मुकुंद ने उत्तरोतर प्रगति की. नामी कंपनी में प्लेसमेंट के साथ घर, कार, सुख-सुविधाएं मिलीं. शहर बदले, नौकरी बदली, ओहदे बदले… नहीं बदला तो भैरोमल काका के प्रति श्रद्धाभाव… जो उन्होंने किया, उसने उनके जीवन को किस तरह आसान बनाया, ये मुकुद और उसके माता-पिता के अलावा और कोई नहीं समझ सकता था.‌ सुप्रिया को अंदाज़ा भी नहीं था कि भैरोमल के साथ सहज जीवन जीने के लिए ख़ुद को उनके स्तर पर लाना मुकुंद के लिए क्यों ज़रूरी था. भला ईश्वर को भी कोई अपनी प्रतिष्ठा-रोबदाब दिखाता है. दो दिन बाद भैरोमल काका अपने गांव चले गए, तो घर का वातावरण अपने पुराने परिवेश में लौट आया, फिर भी सुप्रिया नाराज़ रही, “समझ में नहीं आया कि तुम काका के आने पर क्यों बदले.”

“सुप्रिया, काका हमसे मिलना चाहते थे. मिध्या आडंबर और वैभव से नहीं. संभव था हमारी शानो-शौकत देख वो अपनी स्वाभाविकता खो देते. वो, वो नहीं रहते, जो वो थे, जिन्हें मैं जानता था.” मुकुंद ने सुप्रिया को जवाब तो दिया, पर बात सुप्रिया के गले नहीं उतरी. अलबत्ता ईश्वर से यही प्रार्थना की कि भैरोमल काका अब दोबारा नहीं आएं. बात आई-गई हो गई. मुकुंद काम में व्यस्त हुआ और सुप्रिया चहक में. तभी एक दिन मालती देवी ने सुप्रिया को अपनी पोती को डांटते सुना, “एक हफ़्ते की पॉकेटमनी काटकर तुझे पेंसिल दूंगी. एक हम थे, जो पेंसिल घिस जाने तक इस्तेमाल में लाते थे. एक ये आजकल की औलादे हैं, जिन्हें चीज़ों की कद्र ही नहीं है.” बहू की आवाज़ बैठक तक आ रही थी. जब नहीं रहा गया, तब मालती देवी कमरे में झांकने चली आई. सुप्रिया चहक पर बुरी तरह बरस रही थी.

मालती देवी ने बीच-बचाव की कमज़ोर सी कोशिश की, तो सुप्रिया ने कहा, “मम्मीजी, आप इसकी भोली सूरत पर मत जाइए. आज बड़ी शर्मिंदा हुई हूं इसके कारण, आज पैरेंट्स-टीचर्स मीटिंग में ढेर सारे पैरेंट्स के बीच इसकी टीचर बोली, “मिसेज शर्मा, कम से कम चहक को पेंसिल तो ढंग की दिया कीजिए. सच मम्मी, शर्म से मैं पानी-पानी हो गई, जब इसकी टीचर ने ढाई इंच की पेंसिल मुझे दिखाई.” ग़ुस्से में भरी बहू को देख मालती देवी ने बहू की तरफ़दारी में ही भलाई समझी और चहक से कहा, “क्यों री चहक, कल ही तुम्हारी मम्मी ने मेरे सामने तुम्हें नई पेंसिल दी थी. इतनी जल्दी छोटी कैसे हो गई?”

चहक को चुप देख सुप्रिया बोली, “चार दिन से इसे नई पेंसिल दे रही हूं. इसकी मैथ्स की टीचर ने बताया कि ये डस्टबिन के पास खड़े होकर अपनी पेंसिल छील डालती है.”

“वो मम्मी…” कुछ बोलने की कोशिश में चहक डपट दी गई, मालती देवी ने अफ़सोस से कहा, “जब इसे पेंसिल छीलते देखा है, तो क्लास टीचर ने चार लोगों के सामने तुम्हें यू शर्मिंदा क्यों किया?”

“अरे मम्मी, क्लास टीचर तो सुबह अटेंडेंस लेकर चली जाती है, फिर आख़िरी पीरियड में आती है डायरी लिखवाने के लिए, अब इस बीच ये नई पेंसिल को छीलती है या खाती है वो क्या जानें. उनको तो मुझे शर्मिंदा करना था, सो कर दिया.” ग़ुस्से में भरी सुप्रिया यहां तक बोल गई, “सक्सेसफुल लोगों के बच्चों के पैरेंट्स को शर्मिंदा करने का कोई मौक़ा छोड़ना नहीं चाहती है टीचर्स,”

हालांकि टीचर्स पर लगा ये आरोप बेबुनियाद था, ये मालती देवी समझती थीं, पर सुप्रिया की मनोदशा से परिचित थीं. पैरेंट्स-टीचर्स मीटिंग में कई पैरेंट्स के बीच एक छोटी पेंसिल के कारण उपहास का पात्र बनना भला किसे अच्छा लगेगा. थोड़ी देर में एक बार फिर सुप्रिया ने उसे नई लंबी सुंदर सी पेंसिल शार्प करके दी. मालती देवी ने उसको होमवर्क करने में मदद की, पर डांट पड़ने से शायद वह कुछ बुझी-बुझी-सी थी, इसीलिए आज उसकी लिखावट सुंदर नहीं बनी. शाम को मुकुंद घर आए, तो चहक की चुलबुली बातें सुनने को नहीं मिलीं, बल्कि उसकी एवज में आज जो पैरेंट्स-टीचर्स मीटिंग में हुआ, वह सुनने को मिला.
चहक को चुप-उदास देख मुकुंद ने उसे लाड़ से गोद में उठाकर दुलारते हुए कहा, “आज मेरी गुड़िया इतनी चुप क्यों है?” यह सुनते ही चहक ने एक ही सांस में अपनी मम्मी की सारी ज़्यादितियों का बखान कर डाला, तो मुकुंद अपनी लाड़ली को पुचकारते हुए पूछने लगे, “पर एक बात बताओ, इतनी शानदार सुंदर पेंसिल को तुम छोटी करके क्यों लिखती हो?” यह सुनकर वह झट से बोली, “पापा, नई बड़ी पेंसिल सुंदर तो लगती है, पर उससे लिखा नहीं जाता. छोटी कर देने से वह आसानी से पकड़ में आती है. लिखने में आसानी होती है और राइटिंग भी सुंदर बनती है.” सहजता से चहक ने अपनी बात कही. जिसे सुन पलभर को सन्नाटा छा गया.

वस्तुस्थिति को देखने का नज़रिया टीचर्स का, स्वयं का और चहक का, कितना उलट था. चहक का नन्हा मन अपनी सुविधा और बेहतर प्रदर्शन की चाह में पेंसिल की सुंदरता को दरकिनार कर उसकी लंबाई घटाकर पकड़ने योग्य बना लेता था. उसकी मंशा साफ़ थी. छोटे बच्चे शायद यूं ही सहजता से अपनी समस्या का हल निकाल लेते हैं, जो उसने अभी कहा है, यह काश उसकी टीचर ने भी सुना होता, आसपास के पैरेंट्स ने भी सुना होता, तो कितना अच्छा होता. आज उसको अपनी बात कहने का मौक़ा ना देने के अपराधबोध से भरी सुप्रिया ने उसे गले से लगा लिया.

इस दृश्य को देख मुकुंद मुस्कुरा दिए और देर तक मुस्कुराते रहे. उनके इस हाव-भाव को देख सुप्रिया कुछ विचलित हुई. उसे लगा मुकुंद कुछ कहना चाहते हैं, पर कह नहीं पा रहे है. रात को डाइनिंग टेबल पर मुकुंद को फिर मुस्कुराते देख सुप्रिया पूछे बगैर नहीं रह पाई, “जबसे चहक की बात सुनी है, तुम यूं ही मुस्कुरा रहे हो, बात क्या है?” यह सुनकर मुकुंद गंभीरता से बोले, “पिछले हफ़्ते तुम मुझसे नाराज़ रही कि काका के सामने में अपने कद को घटाकर एक सस्ता व्यवहार क्यों कर रहा हूं, उसका भी यही जवाब है सुप्रिया. अपना बढ़ा कद दिखाकर मैं उन्हें भावहीन नहीं करना चाहता था. पुरानी संजोई यादें और उन दिनों की मीठी कसक कुछ काका और कुछ मेरे मन को उद्वेलित कर गई. पुराने संस्मरणों की सुंदर लेखनी मन पर सुकून अंकित कर गई. आज की भागमभाग और दिखावे की दुनिया में ऐसा सुकून-संतोष मिलना लगभग असंभव है. तुम नाराज़ थीं, पर मैं काका के चेहरे पर ख़ुद के ना बदलने का संतोष भाव देख पा रहा था. वो गौरान्वित थे कि उनके मुकुंद का समय ज़रूर बदला है, रहन-सहन भी बदला है, पर उसके मन के भाव पुराने लोगों के प्रति वही है. बस, यही एहसास और संतोष उपहारस्वरूप उनको देना चाहता था.” मुकुंद की बात समझकर सुप्रिया हथियार डालती हुई सी बोली,‌ “तरक़्क़ी करना गुनाह नहीं है, उसे किसी के लिए छिपाना सही नहीं है.”

“सुप्रिया, तुम्हें क्या लगा, मैंने सब कुछ काका के लिए किया. नहीं सुप्रिया, बहुत कुछ मैंने अपने लिए भी किया. वो बाजरे का खिचडा… वो घास पर नीचे बैठकर धूप सेंकते मूंगफली खाना… वो घासीलाल के बेसन के पकौड़ों और देसी घी की जलेबी की बातें, वो होली में बननेवाली मां और काकी के हाथों की बनी हींगवाली कचौरिया-मावे की गुझिया… सब बातों में ही थी. पर थीं रसीली-चटपटी-स्वादिष्ट… कचौरियों-जलेबियों को हज़म कर पाएं, ना ऐसा काका का पुराना हाज़मा रह गया था, ना मेरी डाइट में उन चीज़ों का स्थान था, पर हां स्मृतियों में रचा-बसा वो पुराना स्वाद, आज सुकूनरहित-भावरहित जीवन में मुंह में पानी लाने के लिए पर्याप्त था.”

मालती देवी मंत्रमुग्ध सी मुकुंद की बातों को सुनती हुई एक बार फिर पुराने दिनों में खो गईं. बेशक, यथार्थ में वह उन पुराने दिनों में जाना नहीं चाहती थीं, फिर भी उसकी कसक मन में रह-रह क्यों हुक उठाती रहती है, ये उनकी समझ से परे था. सहसा सुप्रिया उठकर खड़ी हो गई, लौटकर आई, तो हाथी में पुराने कपडे में बंधा स्टील का पुराना सा डिब्बा था, उसे खोला, तो देसी घी की महक नाक में घुस गई. सुप्रिया मुकुंद की दाल में घी डालते हुए बोली, “काका दे गए थे. कुछ इस भाव से मानो कोई बड़ी जागीर दे रहे हों. मैं स्टोर में बड़ी उपेक्षा से डाल आई थी, पर अभी-अभी महसूस किया कि इसकी क़ीमत वाकई लगाई नहीं जा सकती. अनमोल है.” मालती देवी ने चुपके से आंसू पोंछ लिए और मुकुंद ने कुछ गर्व और प्यार से सुप्रिया का हाथ चुपके से पकड़ते हुए उसे ‘थैंक्स’ कह दिया.