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इसे जानते हैं? गांव की तरफ़ जाने वालीं हर सड़क, पगडंडी के दोनों तरफ़ ये दरबान की तरह खड़ा दिखाई देता है!

Anoop Naraian Singh
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इसे जानते हैं?
गांव की तरफ़ जाने वालीं हर सड़क, पगडंडी के दोनों तरफ ये दरबान की तरह खड़ा दिखाई देता है।
बचपन में इसके तने को काटकर कलम बनाते थे और फिर काली तख्ती पर खाडिया मिट्टी से बढ़िया बढ़िया अक्षर बनाकर लिखा करते थे। बाद में जब कक्षा तीन में कॉपी मिली तब भी इसी की कलम से स्याही में डुबो कर लिखते थे।

आजकल तो इन पर फूलों की बहार रहती है। जब फूल पक जाते हैं तब इनके फूल अपना घर छोड़कर इधर उधर उड़ते रहते हैं जिन्हें हम सब बचपन में पकड़ लिया करते थे और इसे बुढ़ी माई कहते थे। गांव के लोग इसके फूल को भुआ कहते हैं। जब इनकी लकड़ी यानी सेठआ पक जाता है तब काट लिया जाता है। इस लकड़ी का प्रयोग मुख्यतः छप्पर छाने, टाटी बनाने (फूस की दीवार), मंडीला बनाने (भूसा रखने का गोल छप्पर)इत्यादि होता है।

जब फूल नहीं निकले होते हैं सिर्फ कालिया रहती हैं तब उन कलियों को पहले हमारी माँ और हम सब भी तोड़ कर लाते थे इन कलियों को मंजू चीरना कहते थे इन्हीं कलियों को सुखाकर फिर इन्हें चीरकर इनके बल्ले यानी तिनका बना कर रंग बिरंगे मनपसन्द रंग में रंग कर फिर इसी से ढेर सारी वाडिया, मौनी, सिकाहुलि, सिकाहुला, पिटारी, पिटारा बनाते थे ।

जब फूल खिल जाते थे तब इनकी सींक तोड़ते थे इन सींको से बेना (हाथ का पँखा ) बनाते थे, इन सींको को बीच से फाड़कर दो करके पानी मे भिगो देते थे फिर बेलन से बेलकर चपटा करते थे और खुरपा से छिल कर अतिरिक्त गुदा निकाल देते थे। एक कड़ाही में मनपसंद रंग घोलकर उबालते थे और उबलते रंग में इन बल्ले को रँगा जाता था फिर इनसे मन मुताबिक डिजाईन डालकर बेना बनाया जाता था।

इन सींको से ही सूप, तमाम तरह के खिलौने, टोकरी इत्यादि भी बनते थे।
ये मूंजा है।
इसके परिवार के बहुत सदस्य होते हैं जैसे कास, गाड़रा, भलुहा, कुश, कशहरा आदि।