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इसे कौन-कौन पहचानता है?

अरूणिमा सिंह
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इसे कौन कौन पहचानता है?
मत कहना बैलगाड़ी है क्योंकि फिर मै कहूँगी कि बैल और गाड़ी साथ में है तो बैलगाड़ी तो हुई ही लेकिन क्षेत्रीय भाषा में इसे क्या कहते है? वो बताओ!

ये बैलगाड़ी ही है! परन्तु इस गाड़ी को डलल्फ कहते है। ये ट्रॉली का छोटा भाई है और बैलगाड़ी का बड़ा भाई है क्योंकि ये बैल गाड़ी से थोड़ा बड़ा और ट्रॉली से थोड़ा छोटा होता है।

अब आप सोच रहे होंगे कि ये बैलगाड़ी नहीं डलल्फ है तो बैलगाड़ी कैसी होती है?

ज़ब मै छोटी थी तब बैलगाड़ी यानि लढ़िया का समय खत्म हो रहा था और डलल्फ का शुरू हो गया था। यानि लढ़िया मॉडिफाई होकर डलल्फ बन रही थी।लढ़िया का उपयोग खत्म होने लगा था क्योंकि डलल्फ अपने बड़े आकार और नए रूप की वजह से किसानों के लिए ज्यादा उपयोगी साबित हो रहे थे इसलिए लोग लढ़िया को छोड़कर इसे अपना रहे थे।

लढ़िया डलल्फ से थोड़ी छोटी होती थी उसकी पहिया डलल्फ के पहिये से काफ़ी बड़ी होती थी। लढ़िया के पहिये लकड़ी के बने हुए होते थे जबकि डलल्फ में टायर ट्यूब लगने लगे थे।

लढ़िया एकदम से मानवनिर्मित थी जिसे गांव का बढ़ई बनाता था और किसान अपनी लकड़ी देकर बनवाया करते थे। डलल्फ भी बढ़ई ही बनाता था लेकिन इसमें पहिये का अलग चक़्कर होता था।

पहले के समय में ज़ब विवाह होता था तब दूल्हा डोली में जाता था जिसे पीनस कहते थे। ये भी लकड़ी की बनी होती थी जिसे कहार उठा कर ले जाते थे बाकी सब बराती इसी लढ़िए में बैठ कर जाते थे। लढ़ीवान भी बराती होते थे और उसमें बैठने वाले भी बाराती होते थे।

उधर से एक लढ़िया को चमकीली साड़ी, कपड़े से ढंककर सजा दिया जाता था जिस पर बैठकर दुल्हन मायके को छोड़कर उन्हें याद करके रोती हुई ससुराल आती थी। यदि बारात नजदीक गई होती थी तो जिसमे दूल्हा गया होता था दुल्हन उसी में बैठकर आती थी जिसे डोली कहते थे।

वापसी में लढ़िया लेकर आने वाले लढ़ीवान घर के खास रिश्तेदार होते थे इसलिए उनका पहनावा अलग ही चमकता था क्योंकि जितने खास समधी दामाद फूफा इत्यादि रिश्ते होते थे उन सबको बेटी का पिता पियरी (हल्दी में रंगी पीली धोती )पहनाकर विदा करता था। यदि विवाह गलती से फागुन माह में होता था तो सारे बाराती खास तौर पर खास रिश्तेदार लाल हरे रंग में भी रंगे हुए आते थे।

ज़ब लाइन से सजी धजी सारी लढ़िया दुल्हन लेकर वापस लौटती थी तो राहगीर रुक कर उन्हें जरूर देखते थे। हम जैसी बच्चियों के लिए दुल्हन का रोना मनोरंजन का विषय होता था तो कुंवारी और सयानी लड़कियों के उन दुल्हनो के साथ अपने भावी भाव जुड़ जाते थे। बहुओं को अपनी विदाई अपने दिन याद आ जाते थे।

लढ़िया को डलल्फ ने डलल्फ को ट्रॉली ने बदल दिया अब न लढ़िया दिखती है न डलल्फ अब तो बस ट्रॉली होती है हमारे बच्चे तो वही जानते है।
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अरूणिमा सिंह