सेहत

इससे ”ब्लड शुगर” में बढ़ोतरी हो सकती है!!

भारत समेत दुनिया के कई देशों में डायबिटीज़ के मरीज़ों की तादाद लगातार बढ़ रही है. लेकिन इसके साथ ही डायबिटीज़ केयर का बाज़ार भी बढ़ता जा रहा है.

इस बाज़ार में आजकल शुगर मॉनिटर्स के विज्ञापन भी खूब दिख रहे हैं. अक्सर इसकी सिफ़ारिश उन लोगों के लिए भी की जाती है, जिन्हें डायबिटीज़ नहीं है.

लेकिन शीर्ष डॉक्टरों का कहना है कि जिन्हें डायबिटीज़ नहीं है उनके लिए ये शुगर मॉनिटर ज़रूरी नहीं है. कई मामलों में तो इससे ईटिंग-डिसऑर्डर भी हो सकता है.

अक्सर लोगों की इाइट प्लानिंग के तहत शुगर मॉनिटरिंग गैजेट को प्रमोट किया जाता है.

सोशल मीडिया में अक्सर इनका प्रचार किया जाता है. ब्रिटेन में जेडओई जैसी कंपनियां ऐसे मॉनिटर का प्रचार करती हैं.

लेकिन ब्रिटेन की नेशनल हेल्थ सर्विसेज़ के डायबिटीज़ सलाहकार प्रोफेसर पार्थ का कहना है इस बात के कोई पुख्ता सुबूत नहीं हैं कि जो लोग डायबिटीज़ के शिकार नहीं हैं उनके शुगर नियंत्रण में इसकी कोई भूमिका है.

जेडओई का कहना है कि इस संबंध में रिसर्च अपने शुरुआती दौर में हैं लेकिन ये अत्याधुनिक तकनीक है.

जिन लोगों को डायबिटीज़ है उनके शरीर में भोजन करने के कई घंटों बाद भी ब्लड शुगर (इसे ब्लड ग्लूकोज़ भी कहते हैं) का स्तर बढ़ा रहता है. बढ़ी हुई शुगर अगर नियंत्रित न हो तो आपके अंगों को क्षतिग्रस्त कर सकती है.

जेडओई कोविड के लक्षण वाले ट्रैकिंग ऐप की मार्केटिंग में शामिल रही है.

जिन लोगों को डायबिटीज़ नहीं है उन्हें शुगर मॉनिटर बेचने वाली कंपनियों में जेडओई शुमार है.

जेडओई के गैजेट 300 पाउंड में बिकते हैं. कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर इसके विज्ञापन दिखते हैं.

कैसे काम करता है शुगर मॉनिटर

शरीर में शुगर की निगरानी के लिए जो लोग इस गैजेट का इस्तेमाल करते हैं वो इसे दो हफ्ते तक इसे पहने रहते हैं. इससे खाने के बाद शरीर में शुगर के स्तर की निगरानी की जाती है.

कुछ अलग टेस्ट के ज़रिये ये देखा जाता है कि किसी का शरीर वसा से कैसे प्रतिक्रिया करता है. पेट में पनपने वाले बैक्टीरिया की भी टेस्टिंग होती है.

जेडओई का कहना है कि ये टेस्ट ये पता करने में मददगार होता है कि दो अलग-अलग लोगों का शरीर एक ही भोजन के प्रति बिल्कुल अलग तरीके से प्रतिक्रिया कर सकता है.

मिसाल के तौर पर आहार में कार्बोहाइड्रेट लेने के बाद किसी शख़्स के खून में शुगर का स्तर दूसरे शख़्स के खून के स्तर से ज़्यादा हो सकता है.

इससे किसी व्यक्ति को भोजन के चुनाव में मदद मिल सकती है.

लेकिन रिसर्चरों ने कहा है कि गैर डायबिटिक रेंज में शुगर के स्तर में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी और कमी से जुड़े आंकड़ों को अभी तक ठीक से समझा नहीं जा सका है.

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में डायटिशियन और डायबिटीज़ रिसर्चर डॉ. निकोला गेस कहती हैं कि हाई शुगर और शुगर के अलग-अलग स्तर और स्वास्थ्य समस्याओं से जुड़े ज़्यादा सुबूत डायबिटीज़ या प्री-डायबिटीज़ के शिकार लोगों में ग्लूकोज़ के स्तर पर आधारित होते हैं.

वो कहते हैं हाई ब्लड शुगर डायबिटीज़ का लक्षण है. ये सीधे डायबिटीज़ की वजह नहीं हो सकती.

टाइप वन डायबिटीज़ के हालात तब पैदा होते हैं जब पैन्क्रियाज़ इन्सुलिन बनाना बंद कर देते हैं. शरीर में इस स्तर को लगातार बनाए रखे के लिए इन्सुलिन के इंजेक्शन लगाने की ज़रूरत पड़ती है.

टाइप टू डायबिटीज़ की स्थिति तब आती है जब शरीर की कोशिकाएं इन्सुलिन प्रतिरोधी हो जाती हैं इसलिए शरीर में ब्लड ग्लूकोज़ का स्तर सामान्य बनाए रखने के लिए और इन्सुलिन की ज़रूरत होती है.

टाइप टू डायबिटीज़ को आहार, व्यायाम और इस पर नज़दीकी निगरानी से नियंत्रित किया जा सकता है.

जेडईओ का कहना है कि वो मानव शरीर में पेट के जीवाणुओं, आहार और स्वास्थ्य के बीच संबंधों की पड़ताल कर रही है.

सेहत पर क्या असर होता है?

जेडईओ की प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. सराह बेरी ने बीबीसी से कहा कि कंपनी ने दशकों के पोषण शोध के आंकड़ों का इस्तेमाल किया है.

इसके अलावा उसने ब्लड शुगर और स्वास्थ्य के बीच के संबंधों से जुड़े अपने शोध आंकड़ों का भी इस्तेमाल किया है.

लेकिन वो इस बात को मानती हैं कि उनके पास भी वो सारे सुबूत नहीं हैं, जिनसे किसी खास निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके.

लेकिन खराब आहार के जोखिमों को देखते हुए (जिसके असर के बारे में हम पहले से जानते हैं) ब्लड शुगर के लंबे समय तक होने वाले असर को समझने के लिए दशकों का इंतज़ार बेमानी होगा.

हेल्थ सर्विस मुहैया कराने वाली एक स्टार्ट-अप के मालिक और जनरल प्रैक्टिशनर डॉ रैन क्रुक ब्लड शुगर से जुड़े सारे प्रमाणों को हासिल करने के लक्ष्य के बजाय इस दिशा में चल रहे प्रयोगों का समर्थन करते हैं.

वो कहते हैं कि ब्लड शुगर से जुड़े प्रमाणों को हासिल करने का इंतज़ार इस क्षेत्र में इनोवेशन को खत्म कर देगा.

क्रुक और जेडओई के आलोचक भी ये मानते हैं कि कंटीन्यूस ग्लूकोज़ मॉनिटर (सीजीएम) लोगों को ब्लड शुगर से निजात पाने और आहार में परिवर्तन के लिए प्रेरित कर सकता है.

हालांकि लोग दशकों से आहार से जुड़ी बीमारियों के बारे में चेतावनी देते आ रहे हैं. लेकिन सैकड़ों डाइट प्रोग्राम लोगों को उनके आहार बदलावों पर टिके रहने में नाकाम साबित हुए हैं.

हालांकि जेडओई का कहना है कि कंपनी कड़े वैज्ञानिक परीक्षणों पर ज़ोर देती है. इंडस्ट्री में कोई भी कंपनी इस तरह की क्लीनिक ट्रायल नहीं करती. उसकी रिसर्च काफी पुख्ता है.

कंपनी वैज्ञानिकों और पोषण विशेषज्ञों की समर्पित टीम के ज़रिये लोगों को सुबूतों के आधार पर स्वास्थ्य सलाह दे रही है.

क्या सावधानी बरतनी चाहिए?

लेकिन डॉ. गेस इस बात को लेकर चिंतित हैं कि जेडओई के प्रोडक्ट इस्तेमाल करने वाले लोग ऐसे भोजन में कटौती कर रहे हैं, जो उनके स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद है. लोगों को लगता है कि इससे उनके ब्लड शुगर में बढ़ोतरी हो सकती है.

इससे भी अलग तरह की स्वास्थ्य समस्याएं पैदा हो सकती हैं.

उनका कहना है कि जो लोग कार्बोहाइड्रेट से बचते हैं उन्हें अगली बार इसे लेते समय ‘ज़रूरत से अधिक ग्लूकोज रेस्पॉन्स’ मिल सकता है.

ये सामान्य बात है. लेकिन ऐसा करने वाले लोगों को लग सकता है कि अब उनमें कार्बोहाइड्रेट को पचाने की क्षमता नहीं रही.

प्रोफेसर कर कहते हैं कि डायबिटीज़ से पीड़ित ऐसे लोग भी जब बगैर किसी वजह के इसे इस्तेमाल करते हैं तो एक अलग समस्या पैदा होती है.

इससे होता है कि वो ब्लड शुगर के स्तर के आंकड़ों को लेकर काफी आग्रही हो जाते हैं. ये हालात ईटिंग-डिसऑर्डर में बदल सकते हैं.

ईटिंग डिसऑर्डर चैरिटी बीट का कहना है कि ईटिंग-डिसऑर्डर के शिकार लोग अक्सर आंकड़ों पर ध्यान केंद्रित करते हैं. इसलिए वो कभी इस बात की सिफारिश नहीं करेगा इस बीमारी के शिकार लोग ग्लूकोज़ मीटर का इस्तेमाल करें.

जेडईओ का कहना है कि वो इस तरह बीमारी वाले लोगों की जांच करती है. कंपनी का कहना है कि वो अपने सदस्यों के स्वास्थ्य को बेहतरी का पूरा ध्यान रखती है. ग्राहकों तक उसके पोषण कोच की पहुंच होती है और वो उन्हें फूड एन्जाइटी से निजात दिला सकते हैं.

कंपनी ने लोगों की भोजन की पसंद, भूख और ब्लड टेस्ट के नतीजों से जुड़े डेटा पर आधारित रिसर्च प्रकाशित की और इसमें एक पैटर्न ढूंढने की कोशिश की है. लेकिन वो ये नहीं दिखा पा रही है कि इनमें से कौन सा पहलू लोगों के स्वास्थ्य में बदलाव कर रहा है और कौन सिर्फ संयोग है.

जेडओई ने अपने प्रोग्राम से होने वाले बदलावों पर एक अध्ययन किया है. लेकिन अभी तक ये प्रकाशित नहीं हुआ है.

हालांकि आलोचकों का कहना है ये अध्ययन ये सारे पहलुओं को सामने लाने में नाकाम है. जैसे टेस्ट के आधार पर बनाई गई पर्सनलाइज्ड डाइट्स के नतीजे और सपोर्ट और कोचिंग के बाद के नतीजों में अंतर.

डॉ. गेस का कहना है कि चूंकि इस अध्ययन के अलग-अलग पहलुओं को साबित नहीं किया जा सका है इसलिए लोगों को ज्यादा फल और सब्जियां खाने की जरूरत है.

जेडओई भी लोगों को ज्यादा से ज्यादा साबुत अनाज और कम प्रोसेस्ड फूड खाने की सलाह देती है

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रैचेल श्रेर
पदनाम,हेल्थ एंड डिसइनफ़ॉर्मेशन रिपोर्टर