साहित्य

इन्साँ की ख़्वाहिशों की कोई इन्तिहा नहीं….क़ैफ़ी आज़मी के 20 मशहूर शेर…

1.जो वो मिरे न रहे मैं भी कब किसी का रहा
बिछड़ के उनसे सलीक़ा न ज़िन्दगी का रहा

2.इन्साँ की ख़्वाहिशों की कोई इन्तिहा नहीं
दो गज़ ज़मीं भी चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद

3.मेरा बचपन भी साथ ले आया
गाँव से जब भी आ गया कोई

4.पाया भी उनको खो भी दिया चुप भी हो रहे
इक मुख़्तसर सी रात में सदियाँ गुज़र गईं

5.जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यों
मुझे ख़ुद अपने क़दम का निशाँ नहीं मिलता

6.आज फिर टूटेंगी तेरे घर नाज़ुक खिड़कियाँ
आज फिर देखा गया दीवाना तेरे शहर में

7.ख़ार-ओ-ख़स तो उठें, रास्ता तो चले
मैं अगर थक गया, क़ाफ़िला तो चले

8.दिल की नाज़ुक रगें टूटती हैं
याद इतना भी कोई न आए

9.जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी पी के गर्म अश्क
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े

10.तू अपने दिल की जवाँ धड़कनों को गिन के बता
मिरी तरह तिरा दिल बे-क़रार है कि नहीं

11.गर डूबना ही अपना मुक़द्दर है तो सुनो
डूबेंगे हम ज़रूर मगर नाख़ुदा के साथ

12.दीवाना पूछता है ये लहरों से बार बार
कुछ बस्तियाँ यहाँ थीं बताओ किधर गईं

13.मैं ढूँढ़ता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीन नया आसमाँ नहीं मिलता

14.नई ज़मीन नया आसमाँ भी मिल जाए
नए बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता

15.पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था
जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा

16.बहार आए तो मेरा सलाम कह देना
मुझे तो आज तलब कर लिया है सहरा ने

17.तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो

18.जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है
तुम क्यूँ उन्हें छेड़े जा रहे हो

19.दीवाना-वार चाँद से आगे निकल गए
ठहरा न दिल कहीं भी तिरी अंजुमन के बाद

2.ग़ुर्बत की ठंडी छाँव में याद आई उस की धूप
क़द्र-ए-वतन हुई हमें तर्क-ए-वतन के बाद