इतिहास

#इतिहास_की_एक_झलक : मुमताज़ महल की ख़ास सेविका ”सती-उन-निसा” जिन्हें “सतीना” भी कहा जाता था!

सती-उन-निसा, जिन्हें “सतीना” भी कहा जाता था, एक भारतीय-फारसी डॉक्टर थीं। वो मुमताज महल की खास महिला सेविका और बादशाह शाह जहाँ की महलदार (हुक्म चलाने वाली महिला) थीं। साथ ही, उन्होंने शाह जहाँ की बेटियों जहाँआरा बेगम और गौहर आरा बेगम को तालीम भी दी।
वह ईरान के माज़ंदरान इलाके से थीं, जहाँ उनके परिवार में कई पढ़े-लिखे लोग और डॉक्टर थे। उनके भाई तालिब अमोली थे और उनके मामा किसी जमाने में ईरान के शाह तहमास्प के मुख्य हकीम हुआ करते थे।

ईरान में उनके शुरुआती जीवन के बारे में ज्यादा मालूम नहीं है। अंदाजा है कि वो 1580 या उससे पहले पैदा हुई होंगी क्योंकि वो अपने भाई तालिब से बड़ी थीं। उनके भाई भारत आ गए थे और बाद में बादशाह जहाँगीर के दरबारी कवि (शायर) बन गए। 1626 या 1627 के आसपास उनके भाई की मौत हो गई। इसके बाद सतीना ने उनके दो छोटी बच्चियों को गोद ले लिया और उन्हें अपनी बेटियों की तरह पाला।

भारत आने से पहले उनके पति नसीर की मौत हो गई थी। इसलिए वो मुमताज महल की खास सेविका बन गईं। उनकी इल्म-ए-हकीमी (डॉक्टरी) और शाही तौर-तरीकों के बारे में जानकारी की वजह से उन्हें महारानी के महल की मुखिया बना दिया गया। साथ ही उन्हें “मुहरदार” का पद भी मिला, यानी वो मुमताज महल की निजी मुहर रखने वाली महिला थीं। वो जहाँआरा बेगम को फारसी भाषा पढ़ाती थीं। उनकी देखरेख में जहाँआरा एक नामी शायरा बनीं। इसके अलावा, सतीना कुरान की बेहतरीन पाठक और उस्तादा (शिक्षिका) भी मानी जाती थीं।

बादशाह शाह जहाँ ने उन्हें गरीबों की मदद के लिए खास अफसर बनाया। खासकर बेवा महिलाओं, अनाथ लड़कियों (जिनकी शादी के लिए दहेज की जरूरत थी) और पढ़ने-लिखने वाले लोगों की मदद करना उनकी जिम्मेदारी थी। महल की मुखिया होने के नाते उन्हें शाही हरम (औरतों का रहने का स्थान) में बादशाह की नुमाइंदा मानी जाती थी। वो बादशाह को अखबार (खबरें देने वाले) और गुप्तचरों से मिली खबरें पढ़कर सुनाती थीं और बादशाह के हुक्म के मुताबिक जवाब भी देती थीं।

1631 में जब मुमताज महल बच्चे को जन्म देने के बाद दुनिया से रुखसत हो गईं, तो सतीना उनके शाही जनाजे को दफनाने के लिए आगरा ले गईं। कहा जाता है कि गम में डूबे हुए शाह जहाँ अपनी नवजात बेटी गौहर आरा को देख भी नहीं पाए। बाद में सतीना ने ही गौहर आरा को पाला।

अपनी छोटी बेटी की बीमारी के बाद हुए दुख से सतीना उबर नहीं पाईं और कुछ ही दिनों बाद 23 जनवरी 1647 को लाहौर में उनकी मौत हो गई। बादशाह शाह जहाँ ने उनके जनाजे पर 10,000 रुपये खर्च करने का हुक्म दिया। एक साल बाद, उनके शव को आगरा लाया गया और ताजमहल के बाहरी चहारदीवारी के पास उनके लिए खास तौर पर बनवाए गए मकबरे में दफनाया गया। ये मकबरा आज भी मौजूद है, जो फतेहपुरी मस्जिद के पूर्व और ताजमहल के आंगन के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है।