15 अगस्त, साल 2007. भारत की आज़ादी के 60 साल पूरे होने के मौके पर अमेरिकी अख़बार न्यूयॉर्क टाइम्स ने भारतीय स्कूलों के सिलेबस पर एक लेख प्रकाशित किया था.
लेख का शीर्षक था ‘पॉलिटिक्स इज द न्यू स्टार ऑफ इंडियाज क्लासरूम’.
लेख में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि कैसे एनसीईआरटी के नए पाठ्यक्रम के तहत राजनीतिक विज्ञान की कक्षाओं में अब आधुनिक भारतीय इतिहास की सबसे जटिल, विवादित और वीभत्स घटनाएं भी पढ़ाई जा रही हैं.
ये भारत के मज़बूत लोकतंत्र को दर्शाती हैं.
जैसे पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासनकाल में लगाए गए आपातकाल से लेकर साल 2002 में गुजरात दंगों के दौरान मुसलमानों पर हुए हमलों की घटना.
अख़बार ने तब एनसीईआरटी के राजनीतिक विज्ञान पाठ्यपुस्तक समिति के दो मुख्य सलाहकारों में से एक योगेंद्र यादव से बात भी की थी.
अख़बार से बात करते हुए तब योगेंद्र यादव ने कहा था, ”पाठ्यपुस्तक तैयार करते हुए मैंने सोचा कि मेरा काम छात्रों को गंभीरता से सोचने के लिए प्रेरित करना है, उन्हें ऐसे तैयार करना है कि वो चीज़ों पर सवाल कर सकें, लोकतंत्र के लिए सम्मान विकसित कर सकें, चारों तरफ़ चल रही चीज़ों पर नज़र रखकर, उन पर राय बना सकें.”
पंद्रह साल बाद आज ये तस्वीर पूरी तरह से उलट गई है. विदेशी अख़बार और वेबसाइट्स से लेकर देश के कुछ जाने-माने मीडिया संस्थान बीते एक साल से एनसीईआरटी के पाठ्यपुस्तकों में हो रहे बदलाव और उसके पीछे छुपे कथित एजेंडे पर लगातार रिपोर्ट कर रहे हैं.
विपक्ष सवाल उठा रहा है और एनसीईआरटी के राजनीतिक विज्ञान की किताबों के मुख्य सलाहकार योगेंद्र यादव और सुहास पलशिकर ने अब पाठ्यपुस्तकों से अपने नाम हटाने की मांग कर रहे हैं.
सलाहकारों ने एनसीईआरटी को लिखा पत्र
दोनों ने इन किताबों में ‘एकतरफ़ा और अतार्किक’ काट-छांट का आरोप लगाते हुए एनसीईआरटी को पत्र लिखा है.
सलाहकारों का कहना है कि जिस पुस्तक और पाठ्यक्रम पर कभी उन्हें गर्व था, आज उसके बदले स्वरूप को देखकर शर्म आती है. ये वो पाठ्यक्रम नहीं हैं, जिसे उन्होंने तैयार किया था इसलिए उनका नाम इस पुस्तक से अलग कर देना चाहिए.
योगेंद्र यादव और सुहास पलशिकर उस सलाहकार समिति के मुख्य चेहरे थे, जिन पर राजनीतिक विज्ञान के पाठ्यक्रम को तैयार करने की ज़िम्मेदारी थी.
ये पाठ्यक्रम साल 2005 में तैयार किए गए थे और इसमें बड़ा योगदान इन दो मुख्य सलाहकारों का रहा था.
तब से लेकर अब तक एनसीईआरटी की राजनीतिक विज्ञान की नौवीं से लेकर बारहवीं तक की किताबों में दोनों ही मुख्य सलाहकारों के हाथों लिखी एक चिट्ठी प्रकाशित की जाती है.
ये चिट्ठी छात्रों के अभिभावकों और शिक्षकों के लिए लिखी गई है और इसमें बताया गया है कि राजनीतिक विज्ञान की इस किताब की ख़ासियत क्या है, इसमें किन चीज़ों पर बात की जाएगी और इससे छात्रों को क्या लाभ मिलेगा?
वहीं किताब के शुरुआती पन्नों में इन सलाहकारों के योगदान की भी चर्चा है.
ऐसे में अब दोनों ही सलाहकार इन पाठ्यपुस्तकों से अपने नाम, अपनी लिखी चिट्ठी को हटाने की मांग पर अड़े हैं.
योगेंद्र यादव क्या कह रहे हैं?
बीबीसी से बात करते हुए योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘’इन्होंने पुस्तक की आत्मा की हत्या कर दी है. राजनीतिक विज्ञान की किताबें मुख्यतः लोकतंत्र की अभिव्यक्ति हैं और लोकतंत्र में जो चीज़ें अनिवार्य समझा जाता है, उसे पाठ्यपुस्तक से बाहर कर दिया गया है.
”जन-आंदोलनों से जुड़े सभी चैप्टर्स हटा दिए गए, मानवाधिकारों की बात जहां-जहां थी, हटा दिए गए हैं. इमरजेंसी के दौरान लोकतांत्रिक संस्थाओं का जिस तरह से क्षय हुआ था, उसे हटा दिया गया.”
उन्होंने कहा, ”सत्ताधारी पार्टी को जो चीज़ पसंद नहीं आतीं, वो हटा दी गई हैं. महात्मा गांधी के हत्यारे का किस विचारधारा से संबंध था, हटा दिया गया है. जहां विविधता, न्याय की बात है, वो पूरा अध्याय किताब से निकाल दिया गया है.”
” इसलिए हम कहते हैं कि जिस पुस्तक को हमने बड़े लगाव से लिखा था, जिस पर हमें गर्व था उसे लेकर अब शर्म आती है. तो आप पुस्तक के साथ जो कुछ भी करिए, हमारा नाम हटा दीजिए बस.’’
सुहास पलशिकर की दलील
बीबीसी मराठी सेवा के संवाददाता सिद्धनाथ गानू से बात करते हुए सुहास पलशिकर ने बताया, ”2005-07 के दौरान जब ये किताबें तैयार हुईं, तब हम राजनीति विज्ञान की किताबों के लिए चीफ़ एडवाइजर नियुक्त किए गए थे. हमने अपना काम किया और उसके बाद हमारा काम ख़त्म हो गया.
”लेकिन अभी पिछले सालभर में एनसीईआरटी ने ‘रैशनलाइजेशन’ के नाम पर काफ़ी बदलाव किए हैं, जो हमें मंजूर नहीं. इसलिए हमने किताब से ख़ुद को अलग करने की बात रखी है, क्योंकि जो बदलाव एनसीईआरटी कर रहा है, उसके एडवाइजर हम नहीं हैं. जिन्होंने सलाह दिए हैं इसमें उनके नाम होने चाहिए, न कि हमारे.”
एनसीईआरटी बोर्ड का जवाब
एनसीईआरटी ने सलाहकारों की मांग पर एक तरह से जवाब देते हुए एक नोटिस जारी किया है और कहा है कि ऐसी कोई भी मांग करना तार्किक नहीं है.
एनसीईआरटी ने नोटिस में लिखा, ” 2005-2008 के दौरान, एनसीईआरटी ने पाठ्यपुस्तकों के विकास के लिए पाठ्यपुस्तक विकास समितियों का गठन किया था. ये समितियां विशुद्ध रूप से अकादमिक थीं.”
”पाठ्यपुस्तकों के प्रकाशित होने के बाद उसकी कॉपीराइट एनसीईआरटी के पास होती है, न कि विकास समिति के पास और समिति के सदस्य इससे अवगत हैं. पाठ्यपुस्तक विकास समिति में शामिल मुख्य सलाहकार, सलाहकार, सदस्य और को-ऑर्डिनेटर की भूमिका पाठ्यपुस्तक के डिजाइन औऱ विकास से जुड़े सलाह देने तक ही सीमित था.”
”ऐसे में किसी की सम्बद्धता को वापस लेने का कोई सवाल ही नहीं उठता क्योंकि स्कूली स्तर पर पाठ्यपुस्तकें किसी दिए गए विषय पर ज्ञान और समझ के आधार पर विकसित की जाती हैं और किसी भी स्तर पर व्यक्तिगत लेखन का दावा नहीं किया जाता सकता है.”
जबकि योगेंद्र यादव का कहना है कि सवाल कॉपीराइट का है ही नहीं.
वो सवाल उठाते हुए कहते हैं, ”एनसीआरटी को कॉपीराइट है कि वो किताब के साथ जो कुछ भी करे, लेकिन मेरे नाम पर तो उनका कोई कॉपीराइट नहीं है न. एनसीईआरटी हमारे नाम का इस्तेमाल उस किताब के लिए कैसे कर सकती है, जो किताब अब बची ही नहीं है. हमने पाठकों को लिखी अपनी चिट्ठी में किताब का परिचय कराया था. अब जब वो किताब बची ही नहीं, तो हमारी चिट्ठी से उस किताब का परिचय कैसे कराया जा सकता है? ”
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एनसीईआरटी में क्या हो रहा है?
एनसीईआरटी की किताबें और इन किताबों में हुए बदलाव, बीते क़रीब एक सालों से चर्चा में हैं.
कक्षा छठीं से लेकर बारहवीं के पाठ्यपुस्तकों से कई विषयों, चैप्टर और अंशों को हटाना इसकी मुख्य वजह बताई जाती है.
संस्था पर किसी ख़ास मकसद औऱ रणनीति के तहत किताबों में बदलाव करने के आरोप लगते हैं.
जबकि एनसीईआरटी का कहना है कि कोविड महामारी के बाद छात्रों पर सिलेबस का दबाव कम करने के प्रयास में उन्होंने ऐसा किया.
एनसीईआरटी ने पाठ्यक्रम के जो कुछ हिस्से़ हटाए उनके बारे में स्कूलों को बताया गया था, साथ ही संस्था की आधिकारिक वेबसाइट पर भी इसकी जानकारी दी गई थी.
लेकिन बीते साल व़क्त कम होने के कारण नई किताबों की छपाई का काम नहीं हो सका था. अब साल 2023-24 के लिए नई किताबें छप कर बाज़ार में आ गई हैं और इस मामले ने दोबारा तूल पकड़ना शुरू कर दिया है.
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