विशेष

आज डेंटिस्ट-डे है : दांतों की दुर्दशा के लिए मैं खुद ज़िम्मेदार हूँ…by_द्वारिका प्रसाद अग्रवाल

द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
===========
आज डेंटिस्ट-डे है :
अब मैं अपने दांतों से बिछड़ जाने का अफ़सोस करता हूँ. सुना था कि बुढ़ापे में दांत गिर जाते हैं, जैसे, नज़र कमजोर हो जाती है या सुनना कम हो जाता है या बाल झड़ जाते हैं। उम्र बढ़ने के साथ जो होना था वह मेरे साथ भी हुआ लेकिन मैं यह मानता हूँ कि दांतों की दुर्दशा के लिए मैं खुद ज़िम्मेदार हूँ।

किसी को मस्त चबा-चबाकर कुछ खाते हुए देखता हूँ तो आज मुझे उससे जलन होती है क्योंकि मैं दांतों के अभाव में नहीं खा पाता। अमरूद, सेब, सिंघाड़ा, मूली, गाजर, खीरा, प्याज को केवल दूर से देखकर संतोष करना पड़ता है क्योंकि वे मुझसे चबाए नहीं जाते। ट्रेन में बैठकर मूंगफली और भुंजा चना चबाने का सुख हाथ से निकल गया। गन्ना, काजू और अखरोट का नाम लेना भी मेरे लिए पाप जैसा हो गया. तंदूरी और नान रोटी खाना असंभव हो गया, हाँ, चपाती को दाल या दूध में भिगाकर खाता लेता हूँ। कभी-कभी अपनी पत्नी से अनुरोध करता हूँ- ‘यह मुझसे नहीं चब रहा है, तुम चबाकर दे दो।’ आप सोचिए, उम्र बढ़ने से किस कदर दूसरों पर आश्रित होना पड़ता है! .

अब फोटो खिंचवाने में संकोच होने लग गया है क्योंकि बिना दांत निपोरे फोटो अच्छी नहीं आती। फिर भी, जब कभी फोटो खिंचती है तो मैं अपने होंठों को जोड़कर मुस्कुराने की कोशिश करता हूँ ताकि दाँतों की अनुपस्थिति का पता न चले लेकिन कितनी भी कोशिश करो, चेहरे पर मुस्कराहट आती ही नहीं। शादी-ब्याह के अवसर पर लिए गए समूह फोटोग्राफ में अपना मुखड़ा देखकर मुझे ऐसा लगता है कि मैं किसी शोकसभा में भाषण देने के लिए तैयारी कर रहा हूँ।

मेरी बेटी संगीता और दामाद केदारनाथ, दोनों डेन्टिस्ट हैं, मेरा और मेरे दांतों का ख्याल रखते हैं लेकिन वे भी लाचार हैं क्योंकि कैंसर की सर्जरी में मेरे दाहिने जबड़े की वे हड्डियाँ निकालकर अलग कर दी गई हैं जिनमें डेंचर टिकाए जाते हैं। सामने और बाएँ जबड़े में डेंचर लगाना भी मुश्किल है क्योंकि सब्मूकस फाइब्रोसिस के कारण मुंह इतना कम खुलता है कि उसका नाप लेना नामुमकिन है। तो इंप्लांट करवाया, दो लाख लग गए लेकिन यह भी असफल रहा। बात करते समय या खाना खाते समय डेन्चर इंप्लांट छोड़ कर बाहर निकल आते हैं। जब मुंह में ‘ओरिजनल’ दाँत थे तब मालूम नहीं था कि दाँत कितने कीमती होते हैं, यदि पहले से मालूम होता तो उनकी हिफाज़त का ख्याल रखता।

साठ-पैंसठ साल पहले घरों में भोजन पकाने के लिए चूल्हे हुआ करते थे जिनमें लकड़ी जलायी जाती थी। उसकी राख़ बर्तन माँजने और दांतों की सफाई के काम आती थी। अधिकतर लोग दाँत की सफाई के लिए नीम और बबूल की दातौन से मुखारी किया करते थे। नीम की दातौन कड़वी होती थी, सुबह-सुबह मुंह का स्वाद बिगड़ जाता था इसलिए मैं बबूल को प्राथमिकता देता था। सन 1950 के आसपास बिटको का काला दंतमंजन आया। मेरा अनुमान है कि वह कोयला का चूर्ण था जिसमें ठंडक के लिए ‘मिंट’ मिलाई गई होगी।

इस दंतमंजन का उपयोग घर-घर में होने लगा। उसके बाद आया वैद्यनाथ और डाबर का लाल दंतमंजन जो दाँत की अच्छी सफाई करता था लेकिन सोंठ की अधिकता के कारण तीखा लगता था। फिर आया टूथपेस्ट, ‘बिनाका’ और ‘कॉलगेट’, जिसने दाँत की सफाई करने की वह विधि बाज़ार में उतारी जो आज सर्वाधिक लोकप्रिय है। साथ ही टूथपेस्ट के साथ सफ़ेद टुथ-पावडर भी आ गया। ‘कॉलगेट’ से लेकर ‘पतंजलि’ तक सभी टूथपेस्ट उत्पादक चमकीले दांतों व उनकी रक्षा के नाम पर अपने उत्पादन को बेचने के लिए मीठी-मीठी बातों के सहारे हर घर में मौजूद हैं।

टूथपेस्ट के बारे में कुछ उपयोगी और रोचक तथ्य आपको जानने चाहिए। सभी टूथपेस्ट की ट्यूब पर उपभोक्ता को यह सलाह दी जाती है कि वे अपने टूथब्रश में मटर के दाने के बराबर पेस्ट निकालकर उपयोग करें क्योंकि पेस्ट के निर्माण में प्रयुक्त रसायनों में कैंसर के कारक तत्व है इसलिए इसे कम मात्रा में लेना सुरक्षित है। प्रत्येक ट्यूब पर यह सूचना अत्यंत छोटे अक्षरों में अंग्रेजी भाषा में इस तरह लिखी रहती है- Use only a pea sized amount. जो अंग्रेजी नहीं जानता वह इस सूचना को कैसे समझेगा और जो अंग्रेजी जानता है वह कैसे पढ़ेगा?

इतना ही नहीं, सन 1980 के दशक में एक निर्माता के द्वारा उत्पाद की बिक्री बढ़ाने के लिए टूथपेस्ट की ट्यूब का प्रचलित मुहाना बढ़ाया गया ताकि ट्यूब दबाने से अधिक पेस्ट निकले और उसकी अधिक खपत हो। इस चतुराई भरे निर्णय को सभी उत्पादकों ने अपना लिया और टूथपेस्ट की बिक्री में आशातीत वृद्धि हुई।
पहले टूथपेस्ट की ट्यूब टिन की होती थी लेकिन अब प्लास्टिक की आने लगी। प्लास्टिक की ट्यूब आसानी से दबती है इसलिए हल्के से दबाव से ही ढेर सारा पेस्ट बाहर निकल जाता है जिसे वापस नहीं डाला जा सकता इसलिए जितना पेस्ट निकल गया सो निकल गया और हम उसका पूरा उपयोग कर लेते हैं। यह हमारे स्वास्थ्य के लिए घातक है। मटर की साइज़ का पेस्ट लेकर ब्रश करना चाहिए, यह मुझे अब मालूम हुआ है।
ट्रेन के कम्पार्टमेंट और रेल्वे स्टेशन में सुबह के समय लोग ब्रश करते दिख जाते हैं। उन्हें ब्रश करते देख मुझे अपना बचपन याद आ जाता है जब मैं अपने दांतों को रगड़कर साफ किया करता था, उसी तरह जैसे बूट-पालिस की जाती है। पेस्ट करने के बाद कुल्ला करते समय अक्सर रक्तकण दिख जाया करते थे। परिणाम यह हुआ कि युवावस्था आते-आते दांतों में किनकिनाहट होने लगी, अर्थात ठंडक और गर्माहट का दाँत विरोध करने लगे। मैंने अपने डेन्टिस्ट से कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि दांतों के एनामेल घिस जाने की वजह से ऐसा होता है और एनामेल गलत ढंग से ब्रश करने के कारण खुल जाते हैं। मैंने उनसे ब्रश करने का सही तरीका पूछा तो उन्होंने बताया कि ब्रश दाएँ से बाएँ या बाएँ से दाएँ नहीं करना चाहिए बल्कि ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर बिना दबाव डाले आहिस्ता-आहिस्ता करना चाहिए।

विशेषज्ञों की राय है कि जब भी कुछ खाया जाए, हर बार कुल्ला करके भलीभाँति मुंह की सफाई की जाए। सबसे अधिक खतरा रात को सोते समय होता है जब रात भर मुंह में पनपे कीटाणु दांतों और मसूढ़ों को नुकसान पहुंचाते हैं इसलिए सोने के पहले मुंह की सफाई के लिए ब्रश करना बेहद जरूरी समझ में आता है, सुबह के समय तो हम सब ब्रश करते ही हैं। सोने से पहले और सुबह जागने के बाद नियमित ब्रश करने से आपके दाँत और मसूढ़े लंबे समय तक सुरक्षित रहेंगे।

दांतों को नुकसान पहुंचाने वाली मुख्य वस्तुओं हैं, टाफी, पान, तंबाखू, सुपारी, गुठखा, गुड़ाखू, खैनी, नस, पानमसाला और कोल्ड ड्रिंक्स, इनके उपयोग से बचें ताकि आप जीवन भर अपने दातों का उपयोग खाने और मुस्कुराने में कर सकें।

मैंने अपने जीवन में दांतों की यथोचित सफाई पर ध्यान नहीं दिया और पान, तंबाखू, तथा सुपारी का लगभग बत्तीस वर्षों तक भरपूर उपयोग किया, पुरस्कार में मुझे मुंह का कैंसर मिला। आठ सालों में तीन बार कैंसर ने मुझ पर आक्रमण किया, हर बार प्रारम्भिक अवस्था में सर्जरी हो गई, मेरा चेहरा बिगड़ गया लेकिन मैं बच गया। संसाधन बन गये, योग्य डाक्टर मिल गये, देखरेख हो गई, इस कारण जीवित हूँ, सब इतने सौभाग्यशाली नहीं होते।

अब आप समझे कि दांतों और मसूढ़ों की सफाई कितनी आवश्यक है?

(लेख संग्रह ‘ये जीवन है’ का एक अंश)