Madhu Singh
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कौन संभालेगा ऐसी औलाद को? इससे तो अच्छा तू बेऔलाद ही रहती।” अनामिका की सास ने अपना माथा पीटते हुए कहा।
“इसे किसी अनाथ आश्रम में दे आ।” अनामिका की बड़ी ननद बोली।
“ये मेरी बेटी है। चाहे जैसी भी है, इसे मैं पालूंँगी।” अनामिका ने अपनी नन्हीं सी जान को अपने सीने से लगाते हुए कहा।
अनामिका, तुम पागल हो गई हो क्या? ये लड़की अपाहिज है। दिमाग से बिल्कुल बेकार। इसे हम कैसे पालेंगे?” अनामिका के पति सौरभ ने कहा।
“तुम इसके पिता होकर ऐसे बोल रहे हो? मुझे तुमसे ये उम्मीद नहीं थी।” अनामिका ने कहा।
अनामिका का ससुराल उसकी अपाहिज, दिमागी रुप से बिमार बच्चे को अपनाने के लिए तैयार नहीं था। अनामिका ने एक बहुत दृढ़ फैसला लिया। उसने सौरभ को और उसके घर को छोड़ दिया। और अपनी बच्ची को लेकर दूसरे शहर में चली गई।
उसके लिए आगे की ज़िंदगी बिल्कुल आसान नहीं थी। अपनी बच्ची गौरी को वह अकेले छोड़ नहीं सकती थी। इसलिए उसने घर बैठे काम करने का फैसला किया। शाम को उसने अपने घर पर बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। सुबह उसने टिफिन सिस्टम शुरू किया। जिसमें उसने आसपास के ऑफिस में अपने टिफिन भिजवाने शुरू किए। साथ ही साथ उसने ऑनलाइन कंटेंट राइटर का कार्य भी आरंभ किया।
वह हर शनिवार और इतवार अपनी बेटी को शहर के जाने माने मनोचिकित्सक और फिजियोथैरेपिस्ट के पास लेकर जाती थी। अनामिका की मेहनत और ईश्वर के आशीर्वाद से गौरी ने सात साल की उम्र में धीरे – धीरे चलना आरम्भ कर दिया। वैसे उसका दिमाग उम्र के हिसाब से कम था पर अनामिका की मेहनत से वह अब अपने रोज़मर्रा के निजि काम स्वयं कर लेती थी।
अनामिका का पूरा जीवन उसकी बेटी गौरी के इर्दगिर्द ही घूमता था। उसने गौरी को स्पेशल स्कूल में भी दाखिला दिलवाया। अनामिका गौरी के मेडिकल खर्च को पूरा करने के लिए दिन रात लगी रहती। उसका टिफिन बहुत प्रचलित हो गया था। देखते ही देखते उसने खाने – पीने को ही व्यवसायिक रुप देने का निर्णय किया।
सरकार से लोन लेकर एक छोटा सा बुक कैफेटेरिया खोला। धीरे- धीरे वह प्रचलित हो गया। इधर गौरी भी धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। उसकी टांग में हर माह सुधार होने लगा।
अनामिका अपना कैफेटेरिया भी सम्भालती और गौरी की पढ़ाई लिखाई, थैरेपी का भी ख्याल रखती। गौरी की भी पूरी दुनिया जैसे अनामिका ही तो थी। उसकी एकमात्र सहेली, जो उसके संग हंँसती, मुस्कुराती, नाचती, गाती रहती थी।
समय का पहिया तेज़ी से घूम रहा था। अनामिका ने एक सशक्त महिला की तरह सब कुछ संभाल रखा था। पर कहीं ना कहीं उसका शरीर शीर्ण होता जा रहा था। अपने दिमाग पर अत्यधिक बोझ लेने के कारण पैंतालीस साल की उम्र में ही वह मानसिक रूप से बहुत तनावग्रस्त रहती थी। उसके दिमाग की नसें संकुचित होने लगीं थीं । पर इसकी भनक भी उसने गौरी को नहीं पड़ने दी।
आज गौरी पच्चीस साल की हो गई है। एक मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत है। आम इंसान की तरह जीवन जी रही है। पर….आज अनामिका उसके साथ होते हुए भी उसके साथ नहीं है। पचास साल में ही धीरे- धीरे वह अपनी याददाश्त खोती जा रही है।
“मांँ, आज आप क्या खाओगे?” गौरी प्यार से पूछती।
“खाना? नहीं अभी तो खाया है मैंने शायद।” अनामिका ने गफलत में जवाब दिया।
“नहीं मांँ, अभी नहीं खाया। चलो आज आप खाना बनाओ।”
“मैं…मुझे तो आता ही नहीं खाना बनाना।” अनामिका ने हाथ झिड़कते हुए कहा।
गौरी की आंँखों से आंँसू बह निकलते। जो कभी हज़ारों लोगों के लिए खाना बनाती थी आज कह रही हैं कि उन्हें खाना बनाना नहीं आता।
कभी कभी अनामिका की तबियत को ले गौरी भगवान से लड़ पड़ती।
“मेरी मांँ ने कितने दुख सहन कर कितनी कुर्बानियांँ देकर मुझे एक नॉर्मल ज़िन्दगी दी है। और आज जब मैं ठीक हूंँ तो वो एक नॉर्मल लाइफ नहीं जी पा रहीं? क्यों भगवान, क्या कमी रह गई थी? पर मैं भी हार नहीं मानूंँगी। मां को उनकी नॉर्मल ज़िन्दगी लौटा कर रहूंँगी। जहांँ वह कुछ पल सुकून, सुख और शांति से गुज़ार सकें। मैं उनकी परछाईं बनकर हमेशा उनके साथ खड़ी रहूँगी।”
गौरी ने ठान लिया था कि वह अपनी मांँ को कुछ नहीं होने देगी। उसने दिन रात एक करके अपनी मांँ की देखभाल की। उनकी एल्ज़ीमर्स की बढ़ती बिमारी को रोकने के लिए दिन रात अनामिका को दिमाग की कसरत कराती। उसके साथ दिमागी खेल खेलती। पुरानी तस्वीरें दिखा अनामिका की याददाश्त को दुरुस्त रखने की कोशिश करती।
“देखो गौरी, अभी नहीं तो कभी नहीं। अब निर्णय तुम्हें लेना है कि शादी करके मेरे साथ अमेरिका सेटल होना है या फिर यहीं रह अपनी मांँ की सेवा करनी है। एक खूबसूरत ज़िन्दगी तुम्हारा इंतज़ार कर रही है। माँ को किसी अच्छे हॉस्पिटल में एडमिट कर दो और समय पर फीस भरती रहो। अपना भविष्य क्यों खराब कर रही हो?” गौरी के प्रेमी प्रतीक ने कहा।
“मेरी ज़िंदगी तो वहीं है प्रतीक जहांँ ….मेरी मांँ हैं। उनके बिना जीवन तो मैं सोच भी नहीं सकती। आज मैं जो कुछ भी हूंँ उनकी मेहनत की वजह से हूँ। मैं अपनी माँ की परछाईं बन उनके साथ पूरी ज़िंदगी रहूँगी। तुम जाओ और जियो अपनी ज़िंदगी। भगवान ना करे कभी तुम पर ऐसा वक्त आए। क्योंकि तुम्हारी औलाद तुम्हारी ही तरह खुदगर्ज होगी, इसकी मैं गैरन्टी लेती हूँ। गुडबाय प्रतीक।” गौरी उठ के वहांँ से चल दी।
अपनी मांँ को ठीक रखने के लिए गौरी हर सम्भव प्रयास कर रही थी। नियमित दवाइयों से, और गौरी की प्यार भरी देखभाल से अनामिका धीरे-धीरे ठीक होने लगी। अब वह बहुत हद तक एक नॉर्मल ज़िन्दगी जी रही थी।
आज वह दोनों एक दूसरे के साथ, एकदूसरे की शक्ति बनकर रहती हैं। एकदूसरे के हर दुख तकलीफ़ में एकदूसरे का साथ देती हैं। अनामिका ने अपना पूरा जीवन गौरी को ठीक करने में निकाल दिया। और अब गौरी ने भी अनामिका की परछाईं बन उसके जीवन के अंतिम पड़ाव तक उसके साथ रहने की कसम खाई है।
मांँ और बेटी का रिश्ता जीवन के हर रिश्ते से बड़ा होता है। क्योंकि इस रिश्ते में गिले शिकवे, मन मुटाव हो ही नहीं सकते। क्योंकि ये रिश्ता दिल से दिल का रिश्ता है।
Harish Yadav
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❤️🙏🏻🇮🇳
ससुराल में वो पहली सुबह – आज भी याद है.!!
कितना हड़बड़ा के उठी थी,
ये सोचते हुए कि देर हो गयी है
और सब ना जाने क्या सोचेंगे ?
एक रात ही तो नए घर में काटी है
और इतना बदलाव, जैसे आकाश में
उड़ती चिड़िया को, किसी ने सोने के
मोतियों का लालच देकर, पिंजरे में बंद कर दिया हो।
शुरू के कुछ दिन तो यूँ ही गुजर गए।
हम घूमने बाहर चले गए..!
जब वापस आए, तो सासू माँ की आंखों में
खुशी तो थी, लेकिन बस अपने बेटे के
लिए ही दिखी मुझे।
सोचा, शायद नया नया रिश्ता है,
एक दूसरे को समझते देर लगेगी,
लेकिन समय ने जल्दी ही एहसास करा दिया
कि मैं यहाँ बहु हूँ। जैसे चाहूं वैसे नही रह सकती..!
कुछ कायदा, मर्यादा हैं,
जिनका पालन मुझे करना होगा।
धीरे धीरे बात करना, धीरे से हँसना,
सबके खाने के बाद खाना, ये सब आदतें,
जैसे अपने आप ही आ गयीं,
घर में माँ से भी कभी कभी ही बात होती थी,
धीरे धीरे पीहर की याद सताने लगी।
ससुराल में पूछा, तो कहा गया -अभी नही,
कुछ दिन बाद..!
जिस पति ने कुछ दिन पहले ही मेरे माता पिता से,
ये कहा था कि पास ही तो है,
कभी भी आ जायेगी,
उनके भी सुर बदले हुए थे।
अब धीरे धीरे समझ आ रहा था,
कि शादी कोई खेल नही।
इसमें सिर्फ़ घर नही बदलता,
बल्कि आपका पूरा जीवन ही बदल जाता है..!
आप कभी भी उठके, अपने मायके नही जा सकते।
यहाँ तक कि कभी याद आए,
तो आपके पीहर वाले भी,
बिन पूछे नही आ सकते।
मायके का वो अल्हड़पन,
वो बेबाक हँसना, वो जूठे मुँह रसोई में
कुछ भी छू लेना, जब मन चाहे तब उठना,
सोना, नहाना, सब बस अब यादें ही रह जाती हैं..!
अब मुझे समझ आने लगा था,
कि क्यों विदाई के समय,
सब मुझे गले लगा कर रो रहे थे ?
असल में मुझसे दूर होने का एहसास तो
उन्हें हो ही रहा था, लेकिन एक और बात थी,
जो उन्हें अन्दर ही अन्दर परेशान कर रही थी,
कि जिस सच से उन्होंने मुझे इतने साल दूर रखा,
अब वो मेरे सामने आ ही जाएगा.. !
पापा का ये झूठ कि में उनकी बेटी नही बेटा हूँ,
अब और दिन नही छुप पायेगा।
उनकी सबसे बड़ी चिंता ये थी, अब उनका ये बेटा,
जिसे कभी बेटी होने का एहसास ही
नही कराया था, जीवन के इतने बड़े सच
को कैसे स्वीकार करेगा.. ?
माँ को चिंता थी कि उनकी बेटी ने कभी
एक ग्लास पानी का नही उठाया,
तो इतने बड़े परिवार की जिम्मेदारी कैसे उठाएगी?
सब इस विदाई और मेरे पराये होने का मर्म जानते थे,
सिवाये मेरे। इसलिए सब ऐसे रो रहे थे,
जैसे मैं डोली में नहीं, अर्थी में जा रही हूँ..!
आज मुझे समझ आया,
कि उनका रोना ग़लत नही था।
हमारे समाज का नियम ही ये है,
एक बार बेटी डोली में विदा हुयी,
तो फिर वो बस मेहमान ही होती है।
फिर कोई चाहे कितना ही क्यों ना कह ले,
कि ये घर आज भी उसका है ?
सच तो ये है, कि अब वो कभी भी,
यूँ ही अपने उस घर, जिसे मायका कहते हैं,
नही आ सकती..!!
आयेगी भी तो मेहमान ही बनकर… 🙏
(धन्यवाद )