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”अरस्तु कुमार” के चमत्कार…. देश उसके चमत्कारों में व्यस्त है…

अरस्तु कुमार के चमत्कार

अरस्तु कुमार का परिवार सामान्य, साधारण और निम्न मध्यवर्गीय था, ईश्वरीय कृपा में मानने वाला था,और फल स्वरुप जीवन में किसी भी प्रकार के चमत्कार से भी वंचित था, लेकिन जब अरस्तु कुमार का पृथ्वी पर अवतरण पुष्य नक्षत्र में हुआ, तो एक नहीं, कई चमत्कार हुए, एक तो वह कर्ण की ही तरह एक कवच पहने था, लेकिन उसका आकार प्रकार कुछ नेहरू जैकेट जैसा था, ज्यों ही अरस्तु की माँ ने नेहरू जैकेट देखी, तो उस पर ग़ुलाब का फूल लगा दिया, लेकिन अरस्तु ने ग़ुलाब नोच फेंका, वहीँ जब पूजा में कमल के फूल देखे, तो ख़ुशी से खिल उठा, कुटुंब और गाँव को भाँपते देर न लगी, की ग़ुलाब संप्रदाय विशेष से जुड़ा है, और कमल का फूल बिना ग़ुलाब के मुरझाये खिलना मुश्किल है, तो हो न हो इसी प्रकार अरस्तु नेहरू जैकेट का परिवार और विस्तार भी कमल की और खींच ले जाएगा,

लेकिन अरस्तु के नाम के साथ ही एक आकाशवाणी भी हुई थी “अकृतात्मा धरो, मरो या भरो”, अब इस आकाशवाणी से परिवार थोड़ा भयभीत था, साधारण शिक्षा-दीक्षा होने से “अकृतात्मा” का अर्थ समझना कठिन था, लेकिन धरो,मरो और भरो सुन कर भयभीत होना स्वाभाविक था, सो कई विद्वानों और पंडितों का गल्ला-गणेश संतुष्ट किया गया, लेकिन सभी ने आकाशवाणी की अलग-अलग व्याख्या दी, अपने-अपने बखान, गल्ले में दिये गए दान और उनके ज्ञान पर कोई प्रश्नचिन्ह ना उठे, इसी लिये सभी पंडितों और विद्वानों ने कहा की चाहे जो भी हो बालक तीव्र, दैवीय और विलक्षण बुद्धि का तो शर्तिया है, तो नाम भी किसी महान व्यक्ति से ही प्रेरित हो, इसी के चलते अरस्तु को उसका नाम मिला “अरस्तु कुमार”

अब कुटुंब, परिजन और गाँव के सभी लोगों के लिये अरस्तु विस्मय और कौतुहल का विषय बन गया, अरस्तु बाल्य्काल से ही अपनी छाप अपने हर प्रभाव क्षेत्र में छोड़ने लगा, विद्यालय, खेल हो या व्यवसाय संघ, युवावस्था आते-आते अरस्तु ने बड़ों-बड़ों के मार्गदर्शन से ही, बड़ों-बड़ों को मार्गदर्शक तक ही सीमित रखा, अरस्तु ने अपना ही एक दुर्लभ और सफल दर्शन शास्त्र गढ़ा, जिसका प्रमुख संदेश था, “हींग, डींग और सींग”

जिसमें गुरुओं को हींग, साथियों को डींग और समर्थ प्रजातियों को सींग दिखाने, लगाने और चुभाने की महारत हासिल करने के मंत्र थे, इन मंत्रों से पारंगत हो कम से कम अजेय रहने का आभास तो निश्चित ही था, उस पर अरस्तु का आशीष, उसके नाम से जुड़े चमत्कार और उसके त्रिलोकप्रिय होने का प्रचार, इन सब युक्तियों ने बड़े-बड़े धन-पशुओं, बल-पशुओं और एक से एक चालू सत्तालुओं को अपनी ओर आकर्षित किया, और इन्हीं सब के सहयोग से सत्ता के केंद्र तक आ पहुँचा,

लेकिन किसी को भी अरस्तु के निकट जाने के लिये कुछ शर्तों की पालना करनी थी जैसे की हर देव आराधना के कुछ नियम-उपनियम होते हैं, जैसे बाबा लोगों के आश्रम में कृपा पाने कुछ गुप्त मार्ग होते हैं, जैसे न्याय पाने न पाने के बीच दरोगानाथ होते हैं, ठीक वैसे ही अरस्तु चालीसा का कंठस्थ होना अपरिहार्य था, जिसका हर जन्म, मृत्यु और यहाँ तक की हर संघातमृत्यु में भी, सस्वर गाया जाना अनिवार्य था, कमल के प्रति विशेष आस्था, अरस्तु के प्रति स्वामिभक्ति और अरस्तु के महिमाविस्तार में ही अपने विस्तार को सहर्ष स्वीकारना बाकी शर्तों में निहित था, क्योंकि उसे देव रूप और भगवान् का अवतार जैसी संज्ञा दी जा चुकी थी,

अरस्तु ने निःसंदेह सभी के विस्मय को नए आयाम दिए, समूचे तंत्र को अंतरायाम दिये, लेकिन फिर भी अरस्तु कुमार को इतिहास अरस्तु महान कैसे कहेगा, यह व्यथा मन ही मन अरस्तु को सताती थी, चूँकि उसी धरा पर कोई महान आत्माओं का जीवन,आदर्शों की सीख लेने की महज़ औपचारिकताओं तक ही सीमित था, कइयों का तो अरस्तु स्वयं मान-मर्दन कर चुका था, तो ऐसे में अरस्तु कैसे महान कहला प्रासंगिक भी रहता, अरस्तु जानता था जीव की अमरता तो संभव नहीं, लेकिन प्रतीकों और विचारों की हत्या भी लगभग असंभव है, तभी अरस्तु ने ईश्वर की अष्ट भुजाओं वाली प्रतिमा की ओर देखा, उनकी सिद्धियों और कलाओं के विषय में विचार किया, क्या हो जो इस प्रतिमा के मुंड के स्थान पर जो मुंड मेरा हो, और देह अष्ट भुजा वाले देव की, क्या हो जो यह प्रतिमा सर्वोच्च संस्थानों में प्रतिस्थापित हो, क्या हो जो मुद्रा पर भी यही चित्र रहे, क्या हो जो महान अरस्तु की लीला का भी मंचन हो, क्या हो जो लोकोक्तियों और लोक कथाओं में महान अरस्तु अजर अमर हो जाए, यह सभी नश्वर हैं, विशेषकर मुद्रा और संस्थान तो चिर काल तक अमर हैं,

अब अरस्तु बस इसी प्रयोजन में व्यस्त है, अपनी सबसे बड़ी महत्वकाँछा को जन-संवेदना का मुखौटा पहनाने में व्यस्त है, अब अरस्तु कुमार, “अरस्तु महान” बनने में व्यस्त है, देश उसके चमत्कारों में व्यस्त है,

लेकिन अब परिवार कुटुंब और गाँव के सभी लोगों को उस आकाशवाणी का सही अर्थ स्पष्ट हो रहा है, परिलक्षित हो रहा है,

अघोरी राहुल

डिस्क्लेमर : लेखक के निजी विचार हैं, तीसरी जंग हिंदी का कोई सरोकार नहीं है