ज़कारिया खान मूलतः पेशावर जिले से आए एक खूबसूरत पश्तून मर्द थे और भारतीय फिल्मों में अभिनय करते थे. स्क्रीन पर उन्हें जयंत नाम दिया गया था. बंबई में बांद्रा की जिस सोसायटी में रहते थे वहीं उर्दू के मशहूर शायर अख्तर-उल ईमान भी रहा करते थे. उत्तर प्रदेश के बिजनौर से ताल्लुक रखने वाले अख्तर-उल ईमान को न केवल ‘वक़्त’ और ‘धर्मपुत्र’ जैसी फिल्मों का स्क्रीनप्ले लिखने के लिए फिल्मफेयर अवार्ड मिल चुके थे, सन 1962 में उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार भी हासिल हुआ था.
ज़कारिया खान के बेटे अमजद बीए कर रहे थे जबकि चौदह बरस की अख्तर-उल ईमान की बेटी शहला स्कूल जाती थी. शहला जानती थी कि अमजद के पिता फिल्म अभिनेता थे. आस-पड़ोस में अमजद की पहचान एक गंभीर और भले लड़के की बनी हुई थी. शहला को अमजद का आत्मविश्वास भला लगता था. कभी-कभी इत्तफाक ऐसा होता कि सोसायटी के बैडमिन्टन कोर्ट पर दोनों साथ खेला करते. एक दिन शहला ने अमजद को “अमजद भाई” कह कर संबोधित किया. अमजद ने उसे हिदायत दी कि आइन्दा उसे भाई न पुकारा करे.
फिर एक दिन अमजद ने शहला से पूछा, “तुम्हें पता है तुम्हारे नाम का क्या मतलब होता है? इसका मतलब होता है गहरी आँखों वाली.” फिर कहा, “जल्दी से बड़ी हो जाओ क्योंकि मैं तुमसे शादी करने जा रहा हूँ.”
कुछ दिनों बाद अख्तर-उल ईमान के पास बाकायदा शादी का प्रस्ताव पहुँच गया. ईमान साहब ने साफ़ मना कर दिया क्योंकि शहला अभी छोटी थी. अमजद खान गुस्से में पागल हो गए और उसी शाम शहला से बोले, “तुम्हारे बाप ने मेरी पेशकश ठुकरा दी! अगर यह मेरे गांव में हुआ होता तो मेरे परिवार वाले तुम्हारी तीन पीढ़ियों को नेस्तनाबूद कर देते.”