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अब भी 2018 के उस दिन को याद करके कांप उठती हैं, उन्होंने मेरे तलवों को जलाकर टॉर्चर किया था : रिपोर्ट

“मेरी मां ने मुझे डंडे और हाथ से पीटा था. उन्होंने मेरे तलवों को जलाकर टॉर्चर किया था. मेरे पिता ने मुझे अरुवामनाई (सब्ज़ी काटने के औज़ार) से मार डालने की कोशिश की.”

वान्नियार समुदाय की कीर्ति (बदला हुआ नाम) अब भी 2018 के उस दिन को याद करके कांप उठती हैं, जिस दिन उन्होंने बताया था कि वो एक दलित लड़के सौंदर (बदला हुआ नाम) से शादी करना चाहती हैं.

कीर्ति की बात सुनकर उनके मां-बाप ग़ुस्से से भड़क उठे थे क्योंकि तमिलनाडु में वान्नियार समुदाय को अति पिछड़ा वर्ग का दर्जा हासिल है.

इससे कीर्ति के मां-बाप के जातिगत ग़ुरूर को झटका लगा और फिर, साल 2018 के अगले छह महीनों तक कीर्ति को भयंकर जज़्बाती और शारीरिक ज़ुल्म झेलना पड़ा था.

अपने ही मां-बाप के ऐसे बर्ताव को झेलना कीर्ति के लिए बहुत बड़ा सदमा था. लेकिन हालात तब और भयानक हो गए जब एक दिन सौंदर कीर्ति के परिवार के पास शादी करने की इजाज़त लेने आए.

सौंदर ने बताया, “उसके पिता ने मुझसे पूछा कि क्या मैं न्यूज़ चैनल देखता हूं और पूछा कि क्या मैं भी खुली सड़क या रेलवे लाइन में ख़ून से लथपथ मौत मरना चाहता हूं.

कीर्ति बताती हैं कि सौंदर के लौट जाने के बाद उनके पिता ने उनकी मां से वो कुर्सियां घर से बाहर फेंक देने को कहा जिस पर सौंदर और उसके पिता बैठे थे. वो लोग जो फल, फूल और मिठाइयां लेकर आए थे, उन्हें भी कचरे के डब्बे में डाल दिया गया.

इसके बाद वो कीर्ति पर सुसाइड नोट लिखने का दबाव डालने लगे.

सौंदर उस वक़्त को याद करके बताते हैं, ”कीर्ति के मां-बाप ने सोचा था कि वो इन चिट्ठियों को बाद में इस्तेमाल कर लेंगे. कीर्ति को महसूस हुआ कि हम बचेंगे नहीं और अपनी जान बचाने का एक ही रास्ता था कि दोनों शादी कर लें.”

उन्हें अपनी जान को ख़तरा बहुत क़रीब से दिखने लगा था.

इज़्ज़त बचाने के नाम पर क़त्ल

2006 में लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश सरकार केस में अपने एक ऐतिहासिक फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “ऑनर किलिंग में सम्मान वाली कोई बात नहीं है”.

अदालत ने ऑनर किलिंग को ‘सामंती सोच वाले क्रूर लोगों द्वारा हत्या की शर्मनाक करतूत’ क़रार देते हुए कहा था कि ऐसा करने वालों को सख़्त सज़ा दी जानी चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि अंतरजातीय पति-पत्नी को धमकी देने वाले किसी भी शख़्स के ख़िलाफ़ सख़्त से सख़्त कार्रवाई की जाए.

उस फ़ैसले के 17 साल बाद आज भी अंतरजातीय शादियां करने वालों को धमकियां देने, डराने और उनके साथ निर्मम हिंसा की घटनाएं पूरे देश में आम हैं.

ख़ुद को बचाने के लिए कीर्ति और सौंदर ने रजिस्ट्रार के दफ़्तर जाकर अपनी शादी का पंजीकरण कराने का फ़ैसला किया. इसके बाद दोनों अपने दफ़्तर लौट आए और पहले की तरह नौकरी करने लगे. उन्होंने अपनी शादी के बारे में किसी को भी नहीं बताया.

लेकिन, ख़बर बाहर आ गई और उन्हें इसके गंभीर नतीजे भुगतने पड़े.

कीर्ति उस वक़्त को याद करते हुए बताती हैं, “मेरे पिता मुझे लोहे के रॉड से पीटते थे और कई कई घंटे मेरा ख़ून बहता रहता था.”

कीर्ति से कहा गया कि वो एक चिट्ठी लिखें जिसमें वो ये लिखें कि अगर उनकी शादी नाकाम होती है, तो वो कभी भी अपने मां-बाप की संपत्ति पर दावा नहीं करेंगी और न ही उनसे मिलने की कोशिश करेंगी.

कीर्ति को केवल 100 रुपए के एक नोट के साथ घर छोड़ने को मजबूर किया गया. सौंदर और कीर्ति, दोनों सरकारी नौकरी करते थे. पैसों के मामले में अपने पैर पर खड़े होने से उन्हें ये क़दम उठाने में काफ़ी मदद मिली.

वो ज़िंदा बच निकले.

उनका हाल कण्णगी, मुरुगेसन, विमलादेवी, शंकर और इलावारासन जैसा नहीं हुआ… तमिलनाडु में जाति की इज़्ज़त और सम्मान के नाम पर मार दिए गए लोगों की फ़ेहरिस्त काफ़ी लंबी है.

अंतरजातीय शादियां करने वाले उन जोड़ों को हमले और हिंसक बर्ताव का सामना ज़्यादा करना पड़ता है, जब पति या पत्नी में से कोई एक दलित समुदाय से ताल्लुक़ रखता है.


आत्म-सम्मान आंदोलन का गढ़ रहे तमिलनाडु में जातिवादी हिंसा
तमिलनाडु में अंतरजातीय विवाह करने वाले लोगों की संख्या निराशाजनक रूप से बेहद कम है.

2015 में प्रकाशित किए गए एक अध्ययन के मुताबिक़, तमिलनाडु के केवल तीन प्रतिशत लोगों ने अपनी जाति से बाहर शादी की थी.

जबकि, वरिष्ठ विद्वान और इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ पॉपुलेशन साइंस के पूर्व निदेशक, के. श्रीनिवासन द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक़, राष्ट्रीय स्तर पर अंतर्जातीय विवाह का अनुपात काफ़ी अधिक यानी 10 प्रतिशत है.

तमिलनाडु का ये हाल तब है, जब वहां पेरियार के जाति विरोधी आत्म-सम्मान आंदोलन का इतिहास रहा है. इस समतावादी आंदोलन के दौरान सबको समान अधिकार देने की मांग करते हुए समाज के जातिवादी ढांचे को ख़त्म करने का प्रयास किया गया था.

आत्म-सम्मान आंदोलन के दौरान जातिवादी भेदभाव ख़त्म करने के लिए अंतरजातीय विवाह करने को बढ़ावा दिया गया था. 1968 के हिंदू विवाह अधिनियम (तमिलनाडु संशोधन) के तहत आत्म-सम्मान या अंतरजातीय विवाहों को क़ानूनी मान्यता दी गई थी.

आज तमिलनाडु में बहुत से लोग, सदियों पुराने ब्राह्मणवादी रीति रिवाजों को ख़ारिज करके आत्म-सम्मान विवाह करते हैं.

लेकिन, इन तमाम कोशिशों के बावजूद अंतरजातीय जोड़ों को हिंसा का शिकार होने से नहीं बचाया जा सका है.

अंतरजातीय शादियों को दर्ज कराने में मदद करने वाले वकील रमेश के मुताबिक़, समाज में ऐसे जोड़ों के असुरक्षित रहने के तमाम कारणों में से एक ये भी है कि वो अपनी शादियां आधिकारिक रूप से दर्ज नहीं कराना चाहते हैं. अपने परिवारों के ग़ुस्से से बचने के लिए बहुत से जोड़े दूसरे शहरों और क़स्बों में जाकर मंदिर में शादी कर लेते हैं.

रमेश बताते हैं, “लेकिन, इसका नतीजा ये होता है कि जब ऊंची जाति की युवती के मां-बाप उसके गुमशुदा होने की शिकायत दर्ज कराते हैं, तो पुलिस अक्सर शादीशुदा जोड़े का पता लगाकर, उस लड़की को उसके मां-बाप के पास भेज देती है. क्योंकि उनकी शादी क़ानूनी रूप से वैध नहीं होती.”

अब तक रमेश ने 200 से अधिक अंतरजातीय शादियों के पंजीकरण में मदद की है

अंतरजातीय शादियों के लिए मैट्रिमोनियल वेबसाइट
अंतरजातीय शादियों का रजिस्ट्रेशन कराना भी आसान नहीं है. रमेश कहते हैं कि शादी का पंजीकरण करने वाले अधिकारी अक्सर शादी करने वाले जोड़ों को अपने मां-बाप को रजिस्ट्रार के दफ़्तर ले आने को कहते हैं, जिससे शादी के लिए उनकी सहमति ली जा सके. जबकि शादी के क़ानून के तहत इसकी कोई अनिवार्यता नहीं है.

सूचना के अधिकार के तहत हासिल सरकारी जवाबों के सबूत के साथ रमेश अधिकारियों को इस बात के लिए राज़ी करने की कोशिश कर रहे हैं कि क़ानून के तहत ऐसी शादियों को दर्ज करने के लिए मां-बाप की रज़ामंदी ज़रूरी नहीं है. इसके साथ साथ वो अंतरजातीय विवाह करने वाले जोड़ों को ये थका देने वाली प्रक्रिया पूरी करने में मदद भी करते हैं.

लेकिन, अंतरजातीय शादियों को बढ़ावा देने और जोड़ों की सुरक्षा के लिए ये तो बहुत छोटा-सा क़दम है. रमेश और भी बहुत कुछ करना चाहते हैं जिससे अलग-अलग जातियों के लड़के-लड़कियां एक दूसरे से मिलें-जुलें और अपना जीवनसाथी तलाश सकें. ठीक उसी तरह जैसे आम लोग अपनी जाति के भीतर शादियां करते हैं.

इसीलिए, रमेश ने दो महीने पहले मनिदम नाम से एक मैट्रिमोनियल वेबसाइट भी बनाई है. मनिदम का मतलब मानवता होता है.

इसमें लगभग सौ लोग अपना रजिस्ट्रेशन करा चुके हैं. एक बड़ी समस्या के समाधान के लिए ये वेबसाइट, एक छोटा-सा क़दम है.


जयारानी

दलित लेखक और कार्यकर्ता जयारानी कहती हैं कि तमिलनाडु में लोग अपनी ही जाति में शादी करने पर आमादा रहते हैं.

यहां तक तक कि वो अपने घर की लड़कियों को बिरादरी से बाहर शादी करने से रोकने के लिए उनके मामा या क़ज़िन से भी ब्याह देते हैं.

पांचवें नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS-5) 2019-21 के मुताबिक़, तमिलनाडु की 28 प्रतिशत महिलाओं ने बताया कि उनकी शादी अपने ही ख़ून के रिश्ते वालों के साथ हुई है. तमिलनाडु का ये औसत पूरे देश में सबसे ज़्यादा है.

जयारानी कहती हैं कि, “अपनी ही बिरादरी में शादी करने का ये चलन आम होने के कारण राज्य में इज़्ज़त के नाम पर बड़ी तादाद में हत्याएं होती हैं.”

लेकिन, इन अपराधों के लिए दर्ज किए गए मुक़दमों की तादाद बहुत कम है. राज्य के क्राइम ब्यूरो रिकॉर्ड के मुताबिक़, 2013 से अब तक ‘ऑनर किलिंग’ के केवल दो मामले दर्ज हुए हैं. और ये दोनों ही घटनाएं 2017 में दर्ज की गई थीं.

लेकिन, दलितों के अधिकारों के लिए और ‘ऑनर किलिंग’ के ख़िलाफ़ काम करने वाले NGO, एविडेंस द्वारा जुटाए गए आंकड़ों के मुताबिक़, 2020 से 2022 के बीच तमिलनाडु में ऑनर किलिंग की 18 घटनाएं हुई थीं.

सैमुअल राज कहते हैं कि पुलिस भी अंतरजातीय शादियों के जोड़े के साथ सौहार्दपूर्ण व्यवहार नहीं करती है

इंसाफ़ के लिए लंबी लड़ाई
तमिलनाडु के छुआछूत उन्मूलन मोर्चे (TNUEF) के महासचिव, सैमुअल राज कहते हैं कि ‘ऑनर किलिंग’ की ज़्यादातर घटनाएं इसलिए होती हैं क्योंकि अंतरजातीय शादियां करने वाले जोड़ों के लिए सरकार की तरफ़ से रहने और सुरक्षा के सुरक्षित ठिकाने नहीं बनाए गए हैं.

एक दलित युवक दिलीप कुमार से शादी करने वाली कल्लार महिला विमला देवी की मौत के बाद, अप्रैल 2016 में मद्रास हाई कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार को निर्देश दिया था कि वो हर ज़िले में स्पेशल सेल बनाए. 24 घंटे चलने वाले हेल्पलाइन नंबर जारी करे. और, अंतरजातीय शादियां करने वाले जोड़ों को शिकायत दर्ज कराने के लिए मोबाइल ऐप और ऑनलाइन सुविधा भी मुहैया कराए.

हमने तमिलनाडु के चार ज़ोन के चार अलग-अलग ज़िलों में हेल्पलाइन नंबर पर फ़ोन करने की कोशिश की, लेकिन हमें कोई जवाब नहीं मिला.

इस क्षेत्र में काम करने वाले लोग ये आरोप भी लगाते हैं कि पुलिस अक्सर अंतरजातीय संबंधों की जांच के मामलों में लापरवाही बरतती है.

सैमुअल राज कहते हैं कि, “जब मां-बाप पुलिस के पास जाते हैं, तो पुलिसवाले अक्सर ‘कट्टा पंचायत’ के ज़रिए मामले को अनौपचारिक रूप से रफ़ा-दफ़ा कर देते हैं और जोड़ों को अलग कर देते हैं. ऊंची जाति की महिलाओं को अक्सर उनके परिवारों के साथ वापस भेज दिया जाता है, और अक्सर ऐसी महिलाएं फिर ज़िंदा नहीं बच पाती हैं.”

विमला देवी की मौत 2014 में हुई थी. लगभग एक दशक बाद आज भी वो मुक़दमा चल ही रहा है. जब हमने दिलीप कुमार से संपर्क किया तो उन्होंने कहा कि उन्हें जाति के कारण जान गंवाने वाली अपनी पत्नी के लिए अभी भी इंसाफ़ की आस है. ऐसे मामलों में सज़ा मिलने की दर कम होने के कई कारण हैं.

सैमुअल राज बताते हैं, “आम तौर पर जब क़त्ल की घटना होती है, तो इंसाफ़ की लड़ाई पीड़ित का परिवार करता है. लेकिन जातिवादी हत्या के मामले में अक्सर परिवार के सदस्य ही हत्यारे होते हैं. ऐसे में दोषी को सज़ा दिलाना तो दूर, इंसाफ़ की लड़ाई शुरू करने की इच्छाशक्ति भी नहीं होती है.”

उम्मीद की किरण
जब कीर्ति ने सौंदर से शादी करने की ख़्वाहिश जताई थी तो उनकी उम्र 25 बरस थी और वो पैसों के मामले में ख़ुदमुख़्तार थीं. लेकिन, उनके मां-बाप को नहीं लगता था कि कीर्ति इतनी अक़्लमंद हैं कि अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले ख़ुद कर सकें. उनके पूर्वाग्रह और जातिवादी अभिमान को मिथकों और ग़लत जानकारियों से बढ़ावा मिलता था.

कीर्ति बताती हैं, “मुझे बरगलाने के लिए मेरी मां ने मुझे कई बार भाषण दिया. एक बार उन्होंने मुझसे कहा कि दलित तो रोज़ाना इस बात की क़सम उठाते हैं कि वो ऊंची जाति कि महिलाओं को तलाशकर उन्हें अपने साथ शादी के लिए राज़ी करेंगे. ये सबसे हास्यास्पद बात थी जो मैंने किसी से सुनी थी और मैंने सोचा कि कोई स्कूल टीचर इस तरह की सोच कैसे रख सकता है.”

उनकी लड़ाई मुश्किल और बेहद लंबी है, जो अभी भी जारी है.

2022 में जाति विरोधी कार्यकर्ताओं और संगठनों के समूह, दलित मानव अधिकार रक्षक नेटवर्क ने मिलकर ‘दि फ़्रीडम ऑफ़ मैरिज ऐंड एसोसिएशन ऐंड प्रोहिबिशन ऑफ़ क्राइम्स इन द नेम ऑफ़ ऑनर एक्ट 2022’ नाम के एक विधेयक का मसौदा तैयार किया था.

इस बिल में इज्ज़त के नाम पर ज़ुल्म ढाने से बचाव करने और ऐसे अपराध करने वालों को सज़ा देने के प्रावधान के साथ साथ पीड़ितों को मुआवज़ा देने और उनके पुनर्वास की व्यवस्था किए जाने का भी प्रस्ताव है.

कीर्ति अब दो बरस के एक बच्चे की मां हैं. पिछले चार सालों के दौरान उनकी मां ने केवल दो बार उनसे बात की है और वो भी नाती के जन्म के बाद.

शादी के बाद से कीर्ति के पिता अब तक उनसे नाराज़ हैं और उन्होंने कभी भी कीर्ति से बात करने की कोशिश नहीं की है.

कीर्ति कहती हैं, “मुझे उम्मीद है कि एक दिन वो मुझे समझेंगे.”

*कुछ लोगों की पहचान छुपाने के लिए उनके नाम बदल दिए गए हैं.

(BBCShe सिरीज़ प्रोड्यूसर- दिव्या आर्य)

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विष्णुप्रिया, बीबीसी तमिल संवाददाता
नित्या पांडियान, द न्यूज़ मिनट