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अफ़्ग़ानिस्तान : तालिबान के दो साल की हुकूमत पर एक नज़र : रिपोर्ट

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अमेरिका और पक्षिमी देशों ने अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन पर बीस साल तक बम बरसाए, लाखों लोगों की हत्याएं की, एक देश को तबाह कर के रख दिया गया, आखिर में विदेशी ताक़तों को अफ़ग़ानिस्तान से भागना पड़ता है और तालिबान सत्ता में वापस आ जाते हैं

तालिबान को सत्ता में दो साल हो गए हैं, आज भी अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान के 35 खरब डॉलर ज़ब्त कर रखे हैं, यूरोपीय देशों में मौजूद अफ़ग़ानिस्तान के अन्य फंड्स इन देशों ने ज़ब्त किये हुए हैं, भूख, ग़रीबी से जूझ रहे अफ़ग़ानिस्तान की मदद करने के बजाये अमेरिका वहां अब भी परेशानियां पैदा कर रहा है, पंजशीर वैली में अमेरिका पाकिस्तान के साथ मिलकर तालिबान विरोधियों को मदद पहुंचा रहा है

तालिबान के पास पैसों की कमी है, विदेशों से पूंजी मिल नहीं रही है फिर भी देश चलाने के लिए अफ़ग़ानिस्तान की सरकार भरपूर कोशिशें कर रही है, कई तरह के प्रोडक्ट अब अफ़ग़ानिस्तान में बन रहे हैं, जिन्हें UAE के बाज़ारों में बेचा जा रहा है, चीन की कई कम्पनियाँ वहां गैस और पेट्रोल की खुदाई का काम कर रही हैं, अफ़ग़ानिस्तान की सरकार सोने की खदानों से भी पैसा जमा कर रही है

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तालिबान ने 15 अगस्त 2021 को सत्ता पर कब्जा जमा लिया. पिछले दो साल में तालिबानी शासन ने समाज को पीछे धकेलने में कसर नहीं छोड़ी है. खासकर महिलाओं और लड़कियों के लिए हालात खराब हुए हैं.

इस मौके को अपनी जीत के जश्न के तौर पर मनाते हुए तालिबान ने अफगानिस्तान की आजादी पर, किसी भी खतरे से निपटने की बात दोहराई. तालिबान ने एक आधिकारिक बयान में कहा, काबुल पर विजय ने एक बार फिर यह दिखा दिया है कि कोई भी अफगानिस्तान पर कब्जा नहीं कर सकता और यहां नहीं टिक सकता. किसी को भी अफगानिस्तान की स्वतंत्रता को खतरे में डालने की इजाजत नहीं दी जा सकती. अमेरिकी और नाटो सेनाओं की वापसी के बाद सत्ता में लौटने वाले तालिबान ने अपनी जड़ें अच्छे से जमा ली हैं.

अमेरिका के नेतृत्व में अफगानिस्तान में तैनात सेनाओं की 20 साल बाद 2021 में हुई वापसी की प्रक्रिया ने तालिबान को फिर सिर उठाने का मौका दिया था. 15 अगस्त के दिन तालिबान ने राजधानी काबुल में प्रवेश किया और राष्ट्रपति अशरफ गनी ने देश छोड़ दिया था. पश्चिमी देशों के सहयोग से बनी सेना खत्म हो जाने के बाद तालिबान को रोक सकने की कोई सूरत बाकी नहीं रही था. पिछले दो सालों में तालिबान ने तमाम ऐसे आदेश जारी किए हैं जिनसे मानवाधिकारों, खासकर महिला अधिकारों का उल्लंघन हुआ है.

अर्थव्यवस्था और सुरक्षा

देश में उनकी ताकत को चुनौती देने वाला कोई नजर नहीं आता. यहां तक कि तालिबान के भीतर किसी तरह की टूट भी फिलहाल नहीं दिखती क्योंकि पूरा तालिबान कट्टर विचारों वाले अपने नेताओं के पीछे खड़ा है. अर्थव्यवस्था के बुरे हाल में होने के बावजूद, तालिबान ने देश को किसी तरह थाम रखा है. अमीर देशों से निवेश की बातचीत भी चल रही है. यह तब है जब अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने तालिबान को औपचारिक तौर पर मान्यता नहीं दी है. जहां तक आंतरिक सुरक्षा का सवाल है, इस्लामिक स्टेट जैसे हथियारबंद गुट पर लगाम लगाने की कोशिशों के साथ ही तालिबान ने भ्रष्टाचार और अफीम उत्पादन से जूझने का दावा भी किया है.

महिलाओं के लिए बिगड़े हालात

इन दावों के बावजूद अफगानिस्तान में लड़कियों और महिलाओं की आजादी खत्म करने से जुड़े तालिबानी फरमान इन दो सालों पर हावी रहे हैं. औरतों के पार्क, जिम, यूनिवर्सिटी जैसी सार्वजनिक जगहों पर जाने पर बैन लगाया गया. उन्हें संयुक्त राष्ट्र समेत दूसरी गैर-सरकारी संस्थाओं में काम करने से रोका गया. ये सब कुछ चंद महीनों के भीतर ही हुआ. इसकी वजह बताई गई कि औरतें इस्लामिक परंपरा के मुताबिक हिजाब नहीं पहन रही हैं जिससे लैंगिक भेद की सीमाओं का उल्लंघन हो रहा है. तालिबान के शासन के पहले साल में ही लड़कियों को छठी क्लास के बाद स्कूल जाने से मना कर दिया गया था.

एसबी/एडी

दो साल में तालिबानी शासन ने छीन ली महिलाओं की आजादी

शबनम फॉन हाइन

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अफगानी लोगों महसूस करते हैं कि उन्हें अकेले छोड़ दिया गया है. जब से तालिबान ने सत्ता पर कब्जा किया है तब से ऐसी सामाजिक पाबंदियां लगाई गई हैं कि महिलाओं और लड़कियों की आजादी खतरे में पड़ गई है.

ईमानदारी से कहूं तो मुझे लगता है कि मैं एक बुरा सपना जी रही हूं. यह कहना मुश्किल है कि पिछले दो सालों में हमने क्या झेला है. 29 साल की मारूफ ने यह बात डीडब्ल्यू से फोन पर कही. काबुल की रहने वाली मारूफ ने महिलाओं और बच्चों के लिए एक गैर-सरकारी संगठन बनाया था लेकिन 15 अगस्त 2021 में तालिबान ने जब काबुल में कदम रखा तो उनकी संस्था बंद कर दी गई. 20 साल तक अफगानिस्तान में रहने के बाद नाटो सेनाओं के बाहर निकलने का वक्त आया तो कट्टरपंथी इस्लामिक गुट तालिबान ने बहुत तेजी के साथ आगे बढ़ते हुए पूरे देश में पांव पसार लिए. यह महज कुछ हफ्तों के अंदर हुआ.

तालिबान ने इस वादे के साथ सत्ता पर कब्जा किया था कि इस्लामिक कानून यानी शरिया के दायरे में महिला अधिकारों का सम्मान होगा लेकिन पिछले दो सालों में तस्वीर इसके उलट रही है. ऐसी तमाम पाबंदियां और बैन लगाए गए हैं जिन्होंने सार्वजनिक जीवन में महिलाओंकी हिस्सेदारी खत्म कर दी है जैसे शिक्षण संस्थाओं और दफ्तर जाने की शर्तें.

कब्जे से पहले चेतावनी
मारूफ कहती हैं, मुझे समझ नहीं आता कि इस बात की उम्मीद कहां से जगी कि तालिबान बदल गए हैं या बेहतर हुए हैं. हमें हमेशा से मालूम था कि उनके शासन में हम वो सब खो देगें जो हमने हासिल किया है.

वह आगे कहती हैं, “सत्ता पर कब्जे के बीस दिन पहले, काबुल में हम जैसी महिला कार्यकर्ताओं ने एक प्रेस कांफ्रेस की थी ताकि लोगों को हालात के बारे में फिर से बताया जा सके. हमने कहा कि आप उन इलाकों की तरफ देखिए जो तालिबान के कब्जे में हैं और कैसे वो महिला अधिकारों से चिढ़ते हैं लेकिन हमारी किसी ने नहीं सुनी.”

काबुल पर कब्जे पर से पहले ही अफगानिस्तान के कई ग्रामीण इलाकों पर तालिबान जमे हुए थे. इन क्षेत्रों में महिलाओं और लड़कियां घरों में बंद रहती हैं. उनके हिस्से में बेटी, पत्नी और मां की परंपरागत भूमिका है. यह हालात बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे 1996 से 2001 के बीच पहले रह चुके हैं. उस वक्त भी अफगानी महिलाओं और लड़कियों को पढ़ने या काम करने की इजाजत नहीं थी. किसी पुरुष के बिना वह घर से बाहर नहीं निकल सकती थीं. तालिबानी आदेशों को तोड़ने वाली महिलाओं पर सार्वजनिक रूप से कोड़े बरसाए जाते थे.

अफगानिस्तान के भीतर शांति समझौतों के लिए जिम्मेदार रहे शांति मंत्रालय में उप-मंत्री अलेमा अलेमा ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा कि 1990 के दशक वाले तालिबान और आज में कोई फर्क नहीं है. बस वह पहले से ज्यादा सतर्क और अनुभवी हैं. अलेमा कहती हैं, सत्ता में आने के बाद से उन्होंने 51 बैन लगाए हैं जिनसे महिलाएं प्रभावित हैं. इसका मतलब है हर महीने एक बैन. उन्होंने एक साथ इन सबका ऐलान नहीं किया क्योंकि वह लोगों को डराना नहीं चाहते थे. अफगानिस्तान में भी उन्हें थोड़ा संभलकर चलना पड़ रहा है जिससे ताकत हासिल करने से पहले वह समाज को अपना दुश्मन ना बना लें.

नाटो सेनाओं की वापसी
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की अगुआई वाली अमेरिकी सरकार ने 2018 में तालिबान के साथ सीधे बातचीत शुरू की. अब जर्मनी में रहने वाली अलेमा को लगता है कि अगर ट्रंप प्रशासन ने राष्ट्रपति गनी और स्थानीय विशेषज्ञों को बातचीत में शामिल किया होता शायद नतीजा दूसरा होता. अमेरिका और उसके साथी तालिबान के साथ कतर की राजधानी दोहा में बातचीत करना चाहते थे. इसका लक्ष्य था कि अफगानिस्तान से सेनाओं की शांति से वापसी हो सके जहां तालिबान ने लड़ाई शुरू कर दी थी.

इस लड़ाई में हजारो अफगानी लोग और सैनिक मारे गए. हालांकि बातचीत का नतीजा यह हुआ कि 29 फरवरी 2020 को सेनाओं की वापसी का वक्त तय करने में सफलता मिली. अलेमा कहती हैं, फरवरी 2020 के समझौते में अफगानिस्तान के भीतर ही शांति वार्ता की बात कही गई जिसमें तालिबान सरकार से सीधे सौदेबाजी करे…हालांकि तालिबान ने हमसे बातचीत में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.

समझौता ने तोड़ा अफगान हौसला
तालिबान के साथ अमेरिका की सीधी बातचीत ने उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में मदद की. अपने दोहा दफ्तर में उन्होंने वह समझौता किया जिससे अफगानिस्तान में शांति की उम्मीद थी लेकिन उसी डील ने अफगान सेना का हौसला तोड़ा. तालिबान के बढ़ते कदमों को रोकने की जद्दोजहद थम गई.

अफगानिस्तानी पत्रकार और अरियाना रेडियो ऐंड टेलीविजन के पूर्व प्रबंध निदेशक खुशाल आसेफी कहते हैं, “अगस्त 2021 में अफगानिस्तान में जो हुआ वह तालिबान की सैन्य जीत नहीं थी बल्कि एक राजनैतिक फैसला था. तालिबान के साथ पर्दे के पीछे क्या समझौता हुआ, यह किसी को नहीं पता. ऐसा लगा कि पश्चिमी देशों ने सरकार से समर्थन खींच लिया था.” आसेफी को भी देश छोड़ना पड़ा क्योंकि उन्हें कोई भविष्य नजर नहीं आ रहा था और जान का खतरा भी था. वह कहते हैं, “पिछले दो साल का घटनाक्रम इस अहसास को गहरा कर देता है कि देश को तालिबान के हाथों में छोड़ दिया गया है. अब इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह देश में किस तरह की तहस-नहस मचाए हुए हैं. अब तालिबानी नीतियों की निंदा करने से ज्यादा कुछ नहीं होता. अर्थव्यवस्था तबाह है और 20 लाख से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं. लोग सिर्फ जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.”