मधुसूदन उपाध्याय
अदिति -१
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प्राचीन समय की बात है।
इतना प्राचीन कि उस समय आदिमानव अभी इन्स्टा, टिंडर और ओयो का आविष्कार भी नहीं कर पाया था। व्हाट्स ऐप, फेसबुक और ट्विटर जैसी पाषाण कालीन चीजें ही अस्तित्व में थीं।
विशाल भारतवर्ष की महासागरीय जनसंख्या में एक महानगर था नखलऊ।
नखलऊ, सुनते हैं, उर्दू जुबान में इसका मतलब होता था बागीचों का शहर। कभी बाग रहे भी होंगे, चारबाग, ऐशबाग, सिकंदर बाग, कंपनी बाग,बंदरिया बाग, कैसरबाग।
खैर, बाग बागीचे तो रहे नहीं। पर है ये सार खालिस खुशबूओं का शहर।
लक्ष्मणपुर भी तो है ये।
हां, तो प्राचीन समय की बात है। इसी नगर में एक बहुत बड़ा ‘सक्सेना’ रहता था।
सक्सेना जब छोटे थे तब मां बाप ने कहा था ‘बाएं चलना’! सक्सेना बाएं चलते चलते पहले वामपंथी बना। और चूंकि इस देश में वामपंथी बनते ही तमाम करियरान और अफसरान, लेक्चररान बनने के मौके खुल जाते हैं। तो सक्सेना इंजीनियर हो गया। और कहां हुआ पीडब्ल्यूडी में हुआ।
सक्सेना सर्वहारा का झंडा उठाते थे यूनियन में, कालेज के दिनों में। जब लोकनिर्माण में अवर अभियंता हुए तो दो साल में बंगला बना डारे सरोजिनी नगर, इन्दिरा नगर में पैंतालीस पचपन सौ स्क्वायर फीट का।
बड़ा झाड़ फानूस लगा। भव्य महल। तो जैसे अन्य देश राष्ट्र होते हैं जिनके पास एक सेना है और पाकिस्तान एक सेना है जिसके पास एक राष्ट्र है, ठीक वैसे ही, आदमियों के घर होते हैं, यह एक घर था जिसके पास कुछ आदमी थे।
तो ये इन्दिरा नगर वाला घर था जिसमें पांच प्राणी रहते थे। सक्सेना जी, सक्सेनाइन, बड़का बेटवा, फिर सुकन्या और एगो शाकाहारी कुकुर।
घर शानदार था और परिवार का मुखिया सक्सेना बहुत कंजूस, महाकंजूस। खानदानी कंजूस।
इनके पिताजी को दहेज में एक किलो घी मिला था सन सत्तावन में, दो हजार बाईस तक चल रहा है, जबकि रोज घी खा रहे उसी डब्बे से।
पूछो कैसे?
सुबह एक सलाई गरम की जाती नोकदार। फिर उसकी नोक गरम कर के एक मिलीमीटर घी के डब्बे में डाली जाती। फिर वही नोंक को पांच लीटर कुकर में पचास ग्राम पकी दाल में दो बार जोर से रोज हिला दी जाती। पूरा परिवार घी छौंकी दाल खा रहा था।
इनके स्वयं के जब विदाई कराकर पत्नी को लाने लगे थे तो सासु मां ने कुछ गुड़ बांध दिया था। अभी तक चल रहा है। जबकि पूरा परिवार सुबह ब्रश करके रोज कलेवा गुड़ का ही सेवन करता है।
पूछो कैसे?
वो ऐसे कि बाथरूम के ठीक बगल के कमरे में एक ताखा था। उसी ताखे पर एक लकड़ी का छोटा संदूक रखा था। उसी संदूक में एक भेली गुड़ रखा रहता। घर का जो सदस्य ब्रश करके आता पूरा भर हाथ भेली उठाता और जिह्वाग्र से एक बार चाटकर रख देता। खरमेटावन हो जाता।
पूरा परिवार ऐसे ही मौज की जिंदगी जी रहा था।
परिवार में सक्सेना थे, उनकी पत्नी सक्सेनाइन थीं। बेटा बड़ा था जो बहुत बड़ा वाला था।
सुनते हैं, भगवान के घर देर है पर अंधेर नहीं है।
सक्सेना जी, चलो उनका नाम रख देते हैं विनोद।
तो विनोद जी के यहां ईश्वर ने रूप देने में कंजूसी न करी थी। लेकिन भारत में एक समय के बाद मां बाप दादा का दिया नाम बदल भी तो जाता है। विनोद कुमार सक्सेना वी के सक्सेना हो गये थे।
पत्नी बच्चों के अलावा उनका असल नाम बस हमें पता था।
खैर, जैसे कोयले की खदान से हीरे निकले हों, उनके घर कुदरत ने गुलकंद में शहद और मक्खन लपेट कर सौंदर्य की एक देवी को भेज दिया था।
एक चीज बताना भूल गया। इस परिवार का विश्वास था कि उनके पुरखे बंग प्रदेश में कभी राजा रहे थे। सो, यदा कदा ये लोग अपने नाम के साथ राज भी लिखते।
बहरकैफ, सौंदर्य की देवी का नाम था अदिति राज ।
अदिति राज अभी पढ़ रही थीं। अध्ययनरत छात्रा थीं। और, जैसा कि शास्त्र कहते हैं बाढ़ै पूत पिता के धरमे। पिता के सब धरम अधर्म का साक्षात प्रतिफल। पर इन्द्रलोक की अप्सरा सी सुंदर।
बी एस सी में पढ़ रही चित्ताकर्षिणी लड़की।
ये कहानी लखनऊ की कहानी नहीं है, ये सक्सेना जी की भी कहानी नहीं है। ये कहानी अदिति राज की कहानी है। राज की बाते हैं। धीरे धीरे खुलासा होगा। इस परिवार से हमारे मुलाकात हुई थी सक्सेना जी के बेटे के ब्याह में।
यही कोई २०१४ के जाड़ों के दिन थे। मोदीजी सिंहासनासीन हो चुके थे। एकमात्र बेटे की शादी थी। सक्सेना जी कोई कोर कसर न छोड़ना चाहते थे। घर की महिलाएं पार्लर गयीं हेयर सैटिंग का खर्चा २५०० रूपया प्रति झोंटा था। सक्सेना ने अकल लगायी। जोधपुरी साफे ले आए दो दो सौ रूपये। हर मूड़ी पर एक साफा। बच गये पार्लर के पैसे।
खैर, लड़के के ब्याह के बाद सक्सेनाइन को चिंता हुई कि लड़की का करियर सेट हो। कंपटीशन उंपटीशन दे, क्या पता कहीं कुछ हो हवा जाए।
अब पात्रता के अनुकूल अदिति राज ने फैसला किया कि उनको बनना है आई एफ एस और करनी है देश की सेवा। हो गया तो ठीक नहीं तो ऐक्टिंग कर लेंगे।
आई एफ एस के सिलैबस में बायोलॉजी, बायोटेक्नोलॉजी, केमिस्ट्री, जूलोजी बॉटनी, जनरल स्टडीज, करेंट अफेयर्स पता नहीं क्या क्या था। और नखलौ के पचास लाख की जनसंख्या में केवल एक व्यक्ति ऐसा था जो ये सारे विषय अकेले पढ़ा सकता था।
आश्चर्य नहीं कि सारी कायनात उस योग्य विद्यार्थी को उसके परम सुयोग्य शिक्षक से मिलाने में लग गयी थी। शिक्षक जो तब इस शहर का नया नया किराएदार था। वैसे तो कौन किराएदार नहीं जमीन पर?
हस्बेमामूल! अदिति की बात करते हैं।
केशों के आच्छादित आकाश में सुंदर चाँद कहो या कि दमक रही दामिनी का दिव्य प्रवास! भृकुटि के अवरोध अनगिनत और पलकों के अनुरोध अनगिनत! चंचल नैनों से झरते मधुसूदनकामिनी संवाद कहूं! या कहूं मन पर चलते बाण सुनहरे!अधरों पर विस्तृत उन्माद कि श्रृंगारित यौवन प्रेम क्षुधा कह दूं! गालों पर बिखरा जीवन मधुमास कहें?
खैर, यह तो हार्डवेयर की बात। सॉफ्टवेयर जरा अलग। सॉफ्टवेयर न कहें जनाब, मॉडस ऑपरेण्डी कहिए। वह बिलकुल अलहदा।
ऐसा समझिए कि फंक्शनिंग भारतीय लोकतान्त्रिक सरकारों की तरह था। जैसे सरकार स्वयं मदिरा के लाइसेंस और दुकान जारी करती है और मद्यनिषेध के विज्ञापन भी। कुछ कुछ वैसा ही।
क्रमशः
डॉ मधुसूदन उपाध्याय
लखनऊ

मधुसूदन उपाध्याय
अदिति-२
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मैं अगर अपनी जवानी की सुना दूं क़िस्से
ये जो लौंडे हैं मेरे पांव दबाने लग जाएं।
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हां तो हम वह प्राचीन कथा कह रहे थे। अदिति राज की। तो उस कथा में हमने बात की थी अदिति के पिता विनोद सक्सेना उर्फ वी के सक्सेना की। उनके दरियादिली की और उनके बंग कायस्थ राजवंश से संबंधित होने की। अदिति के सुंदरता की भी।
तो, कहानी आगे चले थोड़ा अब।
अदिति की जो आंखें थीं। वैसी आंखें हमने कभी नहीं देखी थीं, आपने भी नहीं देखी होंगी, अगर आप अदिति से न मिले हों।
आंखों के श्वेत श्याम रतनार कैसे तो जैसे ओशो का विरोधाभास। जैसे कृष्णमूर्ति की तीक्ष्णता, जैसे, रमण महर्षि की गुह्यता।
लिखने वालों ने प्रेयस प्रेमिका स्त्री की प्रशंसा में, बहुत सारे विशेषण दिए हैं, मैं वैसा कुछ लिखना नहीं चाहता हूं। अदिति को उन तमाम विशेषणों का विशेष्य नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि उसके सौंदर्य का उसके अलावा और कोई विशेषण ही नहीं। शब्द, कविताएं उस पर कही जा सकेंगी लेकिन चूंकि वह साम्य ही नहीं तो उसके बिना उन कविताओं को भी अस्तित्वविहीन ही देखता हूं।
सात्विक बुद्धि धार्मिक जन, सीधे सरल लोग मुझे क्षमा करेंगे। कि कैसा लेखक है, शिक्षक और छात्रा के बीच के संबंध का वर्णन कर रहा है। और नायिका की आंखों में ओशो, कृष्णमूर्ति और रमण महर्षि को लेकर आया। सच में क्षमा कीजिएगा आप सब।
वैसे भी तनखैय्या शिक्षक गुरू नहीं होते।
खैर, वह अलग विषय है।
अच्छा थोड़ा ये जो अदिति का शिक्षक है, इसके बारे में बता दें। ये जो लड़का है, बिरहमन है। नाम रख लेते हैं एक सुंदर सा। अच्छा ऐसा करते हैं, इस युवा शिक्षक का नाम रख देते हैं, सिद्धेश्वर। आप कहेंगे कि भोगी का नाम योगी रख रहे हैं, क्या अत्याचार है। पर थोड़ा बर्दाश्त करें।
यह सिद्धेश्वर जो लड़का है या आदमी कहें इसके जीवन के दो आदर्श हैं और यह नाम उन दोनों के भी हैं, इसलिए इसे उसका नाम बहुत पसंद है। एक आदर्श कार्तिकेय दूजे दत्तात्रेय। तिस पर यह नाम एक महागुरु का दिया था, और उसके दीक्षा गुरु का भी यही नाम था।
यह सिद्धेश्वर जो है, इसके पूर्वज हस्तग्राम के रहने वाले थे। यह पहले परासर गोत्रीय मिश्र हुआ करते थे। पर इन लोगों ने गहरवार के महाराजा कृष्णदेव के यहां शिक्षा दीक्षा का कार्यभार संभाल लिया था, और हस्तग्राम के उपाध्याय कहे जाने लगे थे।
इन्हीं हस्त ग्राम के उपाध्यायों का एक परिवार ‘चौखरी’ नाम के गांव में बस गया था। इस गांव का नया नाम कुछ और है। जान बूझकर नहीं कह रहा हूं। चौखरी के यह जो उपाध्याय लोग थे इनके वंश में दान लेना और पौरोहित्य करना कभी रहा नहीं।
यह लोग कृषक थे, योद्धा थे, और स्वभावत: तांत्रिक, मांत्रिक और ज्योतिषी हुआ करते थे। जम के खेती और पशुपालन करते और रियासतों, राजाओं के यहां वैद्यक और ज्योतिष का काम संभालते थे। कहते हैं, कि इनके वंश में शाबर मंत्रों की कई गूढ़ शैलियां देवीप्रदत्त मिली थीं।
इनके परिवार की अनेकों कहानियां जनश्रुतियों में हैं। कभी रियासतों से अधिक अन्न पैदा कर लेने की बात, कभी विशाल पशुधन पर अधिकार, कहीं असाधारण बल पौरुष सौंदर्य की बात।
ये चौखरी का जो उपाध्याय घराना है इनके मऊ, गोरखपुर और देवरिया में आज भी पाही है। ‘पाही’ आप लोग समझते ही होंगे।
विश्व संचालन की मूल शक्ति समन्वय है। और हमने सक्सेना परिवार के गुड़ खाने और घी पीने का उल्लेख किया, चौखरी वालों का न करें तो संतुलन समन्वय के बिगड़ने का खतरा रहेगा।
सिद्धेश्वर के परदादा गये एक बार अपनी ससुराल। उनके साले का तिलक आने वाला था। मऊ जनपद सरयू किनारे का देवारा। मधुबन के पास।
दरवाजे पर बहुत बड़ा कोल्हू लगा है। तिलकहरू लोग आएंगे दरवाजे पर भीड़ भाड़ होगी। कोल्हू को किनारे लगाना है। पर पुराना गड़ा कोल्हू, छ: सात लोग लगे हैं, पर हिल न रहा। कर्ण का पहिया हो रहा साला। उधर बारामदे में बैठे जमाई बाबू अपने बड़े साले जो परिवार के सीईओ हैं, मुखिया हैं, उनसे चुहल कर रहे।
अपने छोटकी बहन से ब्याह कराओ तो कोल्हू हम अकेले उठा कर बगीचे में रख दें। साले साहब मान गये। हंसते हुए बोले, अगर न उठा तो हम आपकी बहन लाएंगे।
मंजूर। जाओ एक बाल्टी कचरस घोलवाओ। कचरस न जानेंगे आप, यह गन्ने के ताजे रस में दही घोलकर बनती।
छ: रोल स्पेलर का कोल्हू, कुंटलों वजनी, जमीन में गड़ा। घण्टाकर्ण देवता को याद किया उठाया और रख आए।
एक पूरी ‘पीतरहा’ बाल्टी से मने लगभग सोलह लीटर रस पी डाले। कौन पी रहा है, देवता शरीर, या शरीर में देवता।
साली का बांह पकड़े। मुहूर्त देखा। पंडित बुलाया। विवाह हुआ। नाव में बैठाया फेर नदी पार।
अच्छा, एक बात तो बताना भूल ही गये।
ये चौखरी वाले उपाध्याय मछली-खोर होते हैं।
कहने को कह सकते कि उपाध्याय शब्द ही अपभ्रंश करके उपाझया फिर ओझा और झा बना है। ये झा ओझा उपाध्याय इनमें तमाम समानताएं भी हैं।
हम यहां मछली खाने का समर्थन या विरोध बिलकुल नहीं कर रहे बस एक प्रवृत्ति की बात कर रहे। वैसे भी धर्म की शिक्षा यदि लोमड़ी दे तो मुर्गी चुराना भी पुण्य का काम माना जायेगा, एक पुरानी कहावत है ही।
ऐसा समझें कि आजकल जितना भोजपुरी गानों में नायिका के ढोंड़ी से प्रेम है, लगभग उतना ही बल्कि और भी अधिक इन लोग को मछरी से पियार है।
खैर, ये किधर ले जा रहे हम कहानी को।
सिद्धेश्वर अदिति को पढ़ाने लगे थे। इनके एक मित्र का इंस्टीट्यूट था जहां सीएसआईआर -नेट और जीआरई की पढ़ाई करायी जाती थी। आईएफएस के लिए भी एक बैच चला दिया गया था। कुल जमा बस सात विद्यार्थी। चार लड़कियां और तीन लड़के।
अदिति जो है, सच तो यही है कि शुरुआत उसने सिलैबस पढ़ने से की थी। पर अभी वह पूरे समय केवल और केवल अपने उस एकलौते शिक्षक को ही पढ़ती रहती है। बाद में एक बार उसने अनुप्रास के सहारे कहा भी था सिलैबस से सिद्धेश्वर तक।
सिद्धेश्वर ने इस लड़की को ठीक ठीक क्लास में तो पहले दिन ही नोटिस किया था। पर, दोनों के बीच अनौपचारिक बातचीत पहली बार जब शुरू हुई कि कुछ पूछते समय अदिति ने किसी मुहावरे या फ्रेज़ को कुछ गलत बोला था।
दरअसल, ये उसकी आदत थी या कहें जानबूझकर किया हुआ अभ्यास। वह मुहावरों के क्रम बदल देती थी। मसलन, लहालोट होना को लोहालाट होना कहना, थोथा घना बाजे चना, सागर में गागर भरना, मन गंगा तो कठौती में चंगा, भंग में रंग पड़ना, पहाड़ का राई बनाना। ऐसा।
अदिति जो अब तक यह कहती आयी थी कि प्रेम भूत है जो कमजोर मन वालों को पकड़ता है। एक बार तो अपनी एक दोस्त को समझाते हुए उसने कहा था कि प्रेम आत्महत्या का सबसे वीभत्स मार्ग है। कभी उसने कहा था कि कैसे कोई इतना अज्ञानी हो सकता है कि अपनी चिन्ता छोड़ किसी और के बारे में सोचता रहे, किसी और की फ़िक्र करे?
वही अदिति अभी प्रेम में है भरपूर।
और उधर सिद्धेश्वर, हर एक गति रति मति से जानकार पर सतर्क।
सब ठीक चल रहा है बाहर बाहर। अंदर सब ठीक नहीं। और आदमी पकड़ा जाता है, आंखों से आवाज से। जब आप प्रेम में न हों तो संभवतः प्रेम में होने का अभिनय तो सम्भव है, परन्तु जब आप प्रेम में होते हैं तो प्रेम में न होने का अभिनय बहुत कठिन है, बहुत कठोर अभ्यास है।
समस्या यह है कि यह कठोर अभिनय सिद्धेश्वर कर सकते हैं, अदिति के वश में नहीं। वह सहज प्रगल्भा प्रेमिका नायिका है। अधैर्य नायिकाओं का शाश्वत लक्षण रहा ही है, अपने देश में।
सब कुछ मौन में ही घट रहा है अब तक। कोई न चिट्ठी, न तार, न बातचीत न टेक्स्ट। कुछ भी नहीं।
पर प्रेम का रसायन आ बसा है दोनों के बीच। कहें कि अनंग देव उपस्थित हो चुके हैं।
पर साहब, स्त्री मन जिज्ञासाओं का अबूझ पिटारा। उसे पता है आग है, पर नहीं छूकर देखना है कि जल रहे हैं कि नहीं।
वैसे भी, किसी आदमी को बताइये कि ब्रह्माण्ड में तीन सौ बिलियन सितारे होते हैं, वह आप पर तुरंत यकीन कर लेगा। उसे बताइये कि दरवाज़ा न खोले क्योंकि उस पर ताज़ा पेन्ट किया गया है, वह उंगली लगाकर एक दफ़ा दरवाज़े की लकड़ी छू कर ज़रूर देखेगा कि कहीं आप झूठ तो नहीं बोल रहे।
इंस्टीट्यूट से सिद्धेश्वर का नंबर लिया लड़की ने।
पंद्रह दिन हो गये। पर अभी फोन कर सकने की हिम्मत नहीं हुई है।
फेसबुक पर सिद्धेश्वर की प्रोफाइल खोली। बायो की जगह में वहां लिखा हुआ है ‘सेलेनोफाइल, डेमिसेक्सुअल, सैपियोसेक्सुअल’! और रिलेशनशिप स्टेटस में “मैरिड”।
अब नहीं रह सकती। फोन मिला दिया।
‘सर आप मैरिड हैं’?
कल मिल कर पूछना। बता दूंगा।
फोन रख कर लड़का हंस रहा है।
पंडित संजय तिगनाथ ने कहीं लिखा है कि कहानियों के पटाक्षेप के समय दार्शनिक हंसता है। उसकी आंखें अभी तक हंस रही हैं।
पर क्या यह पटाक्षेप है?
नहीं न।
क्रमशः
डॉ. मधुसूदन पाराशर
लखनऊ
मधुसूदन उपाध्याय
अदिति – चौथी किश्त
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कहते हैं कि मनुष्य अपने कर्मों से इतिहास में अमर होता है। पर वह क्या चीज है जो किसी प्रेम कहानी को अमर बना दे। जबकि प्रेम कितना भी मांसल हो, है तो अशरीरी! और प्रेम कथा में भी प्रत्यक्ष उपस्थिति कहां ही रहती है।
खैर, हमें लगता है कि जब प्रेमियों के बीच संसार अनुपस्थित होने लग जाता है, जब प्रेम की अति सांकरी गली में दो क्या युगपत के भी समाने की जगह नहीं रहती। तभी कोई लोकोक्ति एक तरह से इन दोनों के प्रेम को गोद ले लेती है और एक कहानी अमर हो जाती है सदा के लिए।
ईश्वर धीरे धीरे अदिति में अधीरता की चाबी भर रहे हैं, पुष्प सुवासित हो उठा है। वीणा के तार इतने कसने लगे हैं कि अनंग उस पर संगीत लहरियां फेरता चले।
उधर सिद्धेश्वर दूर से इस ताप से जल रहा है, इस महासंगीत में भींगता है, बस डूबता भर नहीं। प्रकृति अद्भुत है। अधैर्य के साथ धीर, कोमल के साथ वीर खड़ा करती है। बेर केर का संग भी निभाने देती है, प्रकृति मायावी है।
सिद्धेश्वर भी बाहर चहकता है अदिति के संग कभी कभार की मुलाकातों में। क्योंकि इनका मिलना तो रोज का है कक्षा में, पर बाहर कभी कभी ही। यह सिद्धेश्वर का आत्मनियंत्रण कम, अदिति की सामाजिक सुरक्षा की चिन्ता अधिक है।
दोनों जब अकेले होते हैं, भूमिकाएं बदल जाती हैं। रोल प्ले। अदिति के सामने बेबस निर्दोष बच्चा बन जाता है छली। लेकिन जब पढ़ाने आता है तो जैसे सारी इंद्रियों को समेट कर बहुत एकान्त और गम्भीर क्षणों में कोई सूक्तिपरक उपदेश दे रहा हो। विद्यार्थियों को भी एकाग्र करता है और देर तक सोचने के लिए विचारों के बीज उनके मानस में बो देता।
ऐसे ही एकदिन जेनेटिक्स की कक्षा में ‘एजिंग’ यानी बूढ़े होने की प्रक्रिया पर बोल रहा है। शास्त्रीय संदर्भ खोज लाया है।
सर्वे क्षयान्ता निचया: पतनान्ता: समुच्छ्रया:।संयोगा विप्रयोगान्ता: मरणान्तं च जीवितम्।।
सभी संग्रह क्षय को प्राप्त होते हैं, सभी उदय पतन को, सभी संयोग वियोग को और जीवन मरण को प्राप्त होते हैं।
जैसे कहा कि सभी संयोग एक दिन वियोग को प्राप्त होते हैं, कक्षा से एक विद्यार्थी आंसुओं को छिपाए अपना बैग और वॉटर बॉटल लैपटॉप लिए निकल गयी है। बिना कुछ कहे।
प्रोफेसर पढ़ाता रहा है, जैसे कुछ हुआ ही न हो। अविचल। पर सच तो यही कि यह बाहरी अभिनय भर है। उसके भीतर भी कुछ दरक सा गया। कुछ तो इस कथन से, कुछ अभिमानिनी अदिति की प्रतिक्रिया से।
कितने दिलकश हो तुम कितना दिलजूँ हूँ मैं
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे!
भाव और आचरण ही तो कर्मों के महास्रोत हैं। कर्म और भाव एक दूसरे में रूपांतरित होते रहते हैं। कभी साम्य कभी विपरीतता।
कक्षा ख़त्म हुई। और प्रोफेसर पैदल जा रहा अदिति के घर की तरफ। इंदिरा नगर सेक्टर बी साईं मंदिर के आगे मुड़ा तो सोचा कि अदिति को फोन कर लूं।
फोन लगाया। नंबर सेव नहीं अदिति का फोन मेमोरी में। दिल दिमाग में है लेकिन।
*****77444. एक रिंग में ही फोन रिसीव हो गया।
झुंझलाहट, क्रोध, अशक्यता तीनों जोर से बोल रहे थे। उत्तर में सिद्धेश्वर ने बस इतना कहा था कि घर आ रहा हूं। ग्लेशियर पिघल गया।
भाव बदल गये।
भाव चूड़ामणि कहती है-
“न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृण्मये ।
भावे हि विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणम् ॥
भाव बदलते ही एक क्षण मात्र पहले जो अपराधी था, अभी देवता हो गया। जिसे हृदय से निकालने के जतन सोचे जा रहे थे उसके स्वागत के लिए सज रही है सजनी।
बाहर आ गयी। और दोनों अदिति की स्कूटी पर बैठे निकल गये हैं। कहीं जाना नहीं। बस साथ बना रहे इसलिए चल रहे हैं।
नये लखनऊ की तरफ दोनों के जानने वाले अधिक हैं। सो पुराने लखनऊ की तरफ जा रहे। अभी नये नये हैं इस रिश्ते में। बेशरम नहीं होने पाए हैं।
यदि आप मेडिकल कॉलेज चौराहा लखनऊ से बाएं तरफ मुड़ जाजाएंगे और जो सीधी रोड खाला बाजार थाने तक जाती है उसमें चलने लगेंगे तो आगे चौपटिया चौराहा मिलेगा। दोनों लखनवी जायके के अव्वल जानकार। यहां दोनों ने ‘लल्ला की बिरयानी’ खायी है। और ठीक बगल ततय्या महाराज की काली गाजर का घी टपकता हलवा।
दोनों का बिल अदिति ने दिया है। नजरों में खिलखिलाते हुए बोलती है लड़की कि तुमसे बहुत काम लेने हैं इसलिए ताकत की चीजें खिला रही हूं। फागुन शुरू हो गया है, चलता है इतना मजाक।
फिर चौक में राजा की ठंडाई और आगे रामआसरे की स्पेशल रबड़ी और पान मलाई।
दोनों को यह उमंग तरंग का साथ पसंद आ रहा है। तय हुआ कि रविवार सुबह फिर आएंगे। चोर बाजार देखने। सिद्धेश्वर कभी गया नहीं है उधर।
दरअसल, नक्खास बाजार ही रविवार की सुबह चोर बाजार बन जाता है। यहां खरगोश, कुत्ते, तोते से लेकर लकड़ी के हस्तशिल्प, जरदोजी कढ़ाई वाले कपड़े, आभूषण और घरेलू उत्पाद बेचने वाले कई छोटे बाजार हैं।
अदिति ने एक खरगोश खरीदा है, और सिद्धेश्वर ने सैकंड हैंड शीशम के लकड़ी की एक बुक शेल्फ।
दोनों लौट रहे हैं आई टी चौराहे से अलीगंज मुड़ गये हैं। चाय पी। पास में एक पार्क दिखाई दे गया। कोल्ड स्टोरेज उद्यान पार्क। लगभग खाली है पार्क। इक्का दुक्का टहलने वाले हैं।
बहुत देर से एकटक देख रही लड़की पार्क की बेंच पर बैठे। हल्की बयार शीतल और बस जरा सा उठता घाम। लड़की ने माथा चूम लिया है।
बॉयलोजी कहती है कि चूमे जानी वाली जगहों में एक मैग्नेट है। सेल्युलर। इसको महसूस किया जाता है। दरअसल यह आदमी के आदमी होने की पहचान है, पहचान है अपना होने की।
माथा चूमते हुए लड़की ने पूछा है कि इस संयोग का भी वियोग होगा क्या कभी? सर!
सर को जाना है आज की संध्या में बहुत देर हुई।
बोले क्लास के बाद इसका उत्तर दूंगा। पत्र लिखकर। उसका प्रिय शगल है।
कक्षा ली। अदिति बाहर निकल रही थी। अदिति को एक मोटी किताब सौंपी है। ‘ द सेल’ ब्रूस ऐल्बर्ट। इस किताब में एक प्रेम पत्र है। किताब जल न जाए कहीं।
प्रिय अदिति!
” मुझे विश्वास है कि मैं मृत्युंजय हूॅ॑। तुम भी अमृतरक्षिता हो। हम दोनों वियोग, शोक और मृत्यु से परे हैं।
जब तक मेरे भुजाओं में मछलियां नाच रही हैं, जब तक तुम्हारे सुंदर गालों में हमारे प्रेम की रक्ताभा झलकती रहेगी हम दोनों अमर हैं।
हमारे प्रेम की अनंतता मृत्यु को सोख लेगी, वियोग को लील जाएगी। जब तक तुम्हारी आंखों में काजल है, जब तक तुम शीशे में संवरते समय खुद के साथ मुझे देखती हो, हम दोनों अमर हैं, हमारे प्रेम अमर हैं।
जैसे हर सेंट का पास्ट और सिनर का फ्यूचर होता है। हम अपने भूत को मारकर भविष्य-पथ पर साथ चलेंगे।
तुम्हारा भी
सिद्धेश्वर
उधर लड़की को यह तुम्हारा ‘भी’ चुभ रहा है। जैसे बहुत अच्छी डिश के आखिर में कंकड़ आ जाए। और उधर सिद्धेश्वर का मनोवैज्ञानिक साक्षी भाव यह तय करने में खर्च हो रहा है कि उसने सच लिखा या झूठ।
उसे अब्राहम मास्लोव की हाईआर्की ऑफ नीड्स में कहे फिजियोलोजिकल नीड्स याद आते हैं। जब शारीरिक आवश्यकता के लिए विश्व युद्ध हो सकते हैं तो वह एक झूठ तो लिख ही सकता है।
अपने मन में उग आए नैतिकता के एक अंकुर को तर्क के इस तेजाब से झुलसा देता है। धीरे से मन एक साइकोलॉजिकल कॉन्फोरमिटी की तरफ बढ़ गया है। छोड़ेगा नहीं इस संबंध को। देखा जाएगा आगे जो होगा।
ऐसे होते हैं मनुष्य और ऐसी ही है दुनिया।
यह देह एक मुँडेर है। बाउंड्री है। लिमिटेशन है। बाधा है। देह को पाने का प्रयास देह का अतिक्रमण है। क्योंकि उसकी सीमा से आगे एक अलग ही संसार शुरू होता है।
वह दुनिया , जिसका रहस्य, जिसमें अपनी उपस्थिति का आशय, हमें समझना होता है। जहां मन खुलते हैं, खोले जाते हैं। यह मन अगर स्त्री शरीर में हो तो उसे हरदम ध्यान रखना होता है, कहीं उलच न जाये, गिर न जाये। ऐसा नहीं कि पुरूष जीवन कोई आसान जीवन है, फिर भी।
खैर, यहां दोनों मन, शरीर का अतिक्रमण करने तैयार हैं। इस अतिक्रमण के लिए वर्तमान परिधि से निकलना है। एक दिन दोनों अयोध्या जाएंगे घूमने। सुबह गये रात तक वापस। दो दिन की काशी की यात्रा रहेगी । और एक दिन विंध्याचल।
यह तीन यात्राएं तीन आत्माओं के आगे का भविष्य तय करेंगी।
क्रमश:
डॉ मधुसूदन पाराशर
फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी
वि.सं. २०७९
लक्ष्मणपुरी
मधुसूदन उपाध्याय
अदिति -पांचवीं किश्त
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वही प्राचीन कथा। तीन यात्राओं पर जाना है प्रेमी युगल को। अदिति और उसका प्रेमी सिद्धेश्वर।
आम ‘लवर्स’ शायद चौपाटी, सैर सपाटा, गोवा, मरीन, शिमला जाते। पर नहीं ये दोनों तो ‘मेंटॉस जिंदगी ‘ जी रहे हैं। ये एक आन्तरिक यात्रा का प्रारंभ है। एक खोज है। यह अवध काशी और विंध्याचल से गुजरेगा।
सुबह सुबह इनको अयोध्या जी जाना है। सिद्धेश्वर जल्दी उठ गया है। नित्य कर्म और संध्या वंदन से निवृत्त हो एक पुरानी पेंडिंग पड़ी कविता को सजाने लगा है।
कविता कुछ यूं थी अगर इसे कविता कहा जा सके । कि..
“सबसे बेहतरीन संगीत सुना ही नहीं जाएगा
सुंदरतम गीत गुनगुनाए ही नहीं जाएंगे
सबसे रसमय फलों को चखा ही नहीं जाएगा
और सबसे शानदार लोग अकेले रह जाएंगे
सबसे सुंदर आंखों तक काजल नहीं पहुंचेगा
अपार संभावनाओं वाले बीज बोए ही न जाएंगे
शल्य लड़ेंगे, विकर्ण लड़ेंगे, असमर्थ लड़ सकेंगे
नीति बर्बरीक को दूर ही रखेगी कुरूक्षेत्र रण से
सबसे सक्षम चेतनाएं डूबेंगी सतही परिभाषाओं में
बिम्बों के ढेर में धंसे रह जाएंगे तमाम युगकवि
जैसे कूड़े से लोहे प्लास्टिक बीनता कोई कबाड़ी
अब मिथिला छोड़ जाएंगे वाचस्पति और उदयन
सर्वाधिक आसक्त प्रेमी पर यकीन न किया जाएगा
वह महामंत्र जो सिद्ध था जपा ही नहीं जाएगा
वे भोग भोगे नहीं जाएंगे जिनसे तुष्ट हों कामनायें
उस पथ पर चला ही न जाएगा जो सुपथ था
साधो! यह कुसमय सदा था ,अब भी है, रहेगा
कि सबसे सुयोग्य माथे अब तक चूमे नहीं गये
वो दूरियां कम ही न हुईं जो सबसे निकट थीं
साधो! यही कर्मरेख है अजल से लिखी हुई “
अदिति का फोन आ गया। कविता को उसके हाल पर छोड़ निकल गया है। दोनों की आपसी सहमति बनी है कि अयोध्या जाएंगे तो सबसे पहले जाएंगे गुप्तार घाट जहां श्रीराम ने लीला संवरण किया। रिवर्स क्रोनोलॉजिकल। पहुंच गये, ये वो जगह नहीं कि गये कबड्डी कबड्डी और पाला छुआ फिर चल दिए।
प्रत्येक स्थान की एक विशेषता है। किसी स्थान में स्वाभाविक रूप से भाव का विकास हो सकता है और किसी स्थान में प्रेम का विकास हो सकता है और किसी स्थान में योगसिद्धि का विकास हो सकता है।
किसी स्थान पर भोग जागता है, कहीं उपरति कहीं तितिक्षा कहीं रति।
लोक में एक कथा है।
श्रवण कुमार कांवड़ में अंधे माता पिता को लेकर तीर्थ कराने जा रहे हैं। मातृ-पितृभक्ति का अनन्यतम उदाहरण।
एक पापभूमि आई है रास्ते में। कथा कहती है, श्रवण ने कांवड़ उतार दिए। दुर्वचन कहने लगा है महान पितृभक्त।
पिता जो त्रिकालज्ञ हैं। हंसते हैं। बोले जहां खड़े हो वहां से सात कदम पूरब पांच कदम उत्तर चलो। फिर कहो।
चमत्कार हुआ, वही श्रवण अब क्षमा मांग रहे।
खैर, कथा आगे चले।
गुप्तार घाट नेति नेति को अनुभूति में उतारने की जगह है। यह श्रेयस और प्रेयस के द्वंद्व को समझने की जगह है। यह प्रवृत्ति और निवृत्ति से भी परे जाने की जगह है।
अदिति देखती है, उसके कुशल गाइड की आंखों में राम की जलसमाधि की एक झीनी परछाईं हल्के हल्के डूब रही है।
कल्पना करें कि इस घाट पर प्रेमानुभूति हो।
यह जोड़ा फिर आगे निकल गया है। संयमित भाविकों की तरह। नंदीग्राम फिर भरत कूप फिर सीताकुंड। अयोध्या में सिर्फ रामजन्मभूमि, हनुमान गढ़ी, दशरथ महल और कनक भवन ही नहीं हैं। सिद्धेश्वर जानता है, अदिति जान रही है।
कभी मुदित होती, कभी जिज्ञासाओं से भर उठती, कभी गर्व करती अपने प्रेमी पर। एक नया संसार खुल रहा है उसके सामने। एक नया क्षितिज। क्षितिज के पार सूर्य मंडल में सिद्धेश्वर दिखाई देता है, कभी सामने का काल्पनिक, कभी वास्तविक।
तीर्थ को जानना हो। एक कुछ जानता हो, एक को परिचय कराना हो, शरीर में बल हो, जिज्ञासु मस्तिष्क हो। कार्यसिद्धि के लिए साथ में पल्सर बाइक। सुयोग है यह।
आगे चले दोनों विद्याकुंड ,वशिष्ठ की साधना स्थली। इसी जगह करोड़ों अरबों सविता गायत्री जपे गये। यहीं मान्धाता, अज, रघु, दिलीप, दशरथ, राम एक तपस्वी की कुटिया में प्रवेश के लिए हाथ जोड़कर खड़े रहे होंगे।
आह भारत!
सिद्धेश्वर, दो बार का विवाहित, कभी पुत्रेषणा में परेशान रहा था। उस स्थान तक गया था जहां दशरथ के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ हुआ था। अदिति को दिखाना चाहता है वह जगह। उसकी दिव्यता ने आलोडित किया था । ध्यान रहे दिव्यता, भव्यता नहीं। मख तीर्थ! सरयूपार बस्ती जिले में।
ज्यादा दूर नहीं, वहां से मनोरमा नदी की एक क्षीण धारा भर बची है। पास में तट पर है अत्रि और श्रृंगी का आश्रम।
दुस्सह काल! क्या दैवीय सम्पदा रही होगी इस स्थान की। अभी लगभग निर्जन।
वापस लौट रहे दोनों। बड़ी देवकाली पहुंचे। रामचन्द्र पूजित। कल्पना से ही द्रवित हो रहा सिद्धेश्वर, कि यहां राम जब स्तुति गा रहे होंगे, कैसा तो दृश्य रहा होगा। आवेशित हो उठता है बीच बीच में, अदिति की श्रद्धा जागती, फिर आश्चर्य की लहरों में खो जाती।
लड़की के साथ सहानुभूति। प्रेयस के साथ ‘क्वालिटी टाइम’ बिताने आयी थी।
आगे छोटी देवकाली रामघाट, क्षीर दुग्धेश्वर और नागेश्वर नाथ के दर्शन हुए।
धार्मिकता और आध्यात्मिकता का ओवरडोज हो चुका है नवयौवना के लिए। अब कहीं आगे जाने को तैयार नहीं।
बहाने से कहती है, कि देर हो जाएगी। कुछ खाते हैं, और लखनऊ चलते हैं।
सिद्धेश्वर समझता है। पर जानते हुए भी उसकी मानता है। उसकी जिद मानने में इसे सुख है।
यूं भी शास्त्र कहते हैं।
भ्रूचातुर्याकुञ्चिताक्षाः कटाक्षाः स्निग्धा वाचो लज्जिताश्चैव हासाः ॥ लीलामन्दं प्रस्थितं च स्थितं च स्त्रीणामेतद् भूषणं चायुधं च ॥
अर्थात चतुराई से भौंहे फेरना, आधी आँख से कटाक्ष करना, मीठी मीठी बातें करना, लज्जा के साथ मुस्कुराना, लीला से मन्द-मन्द चलना और फिर ठहर जाना । ये भाव स्त्रियों के आभूषण और शस्त्र हैं ।
कौन पुरुष होगा जो इन आभूषणों पर न मर मिटे, इन शस्त्रों से न हार जाये।
दोनों को भूख लगी है। आत्मीय प्रेमिका घर से बहुत कुछ बनाकर लायी है। मूंग का हलवा, कचौरी, कटहल कोफ्ते की सब्जी, जीरा राइस, गुलाबजामुन।
बाभन और असल भोजन भट्ट! दसों उंगलियां घी में हैं। वैसे भी सिद्धेश्वर उत्तर प्रदेश के उस जनपद का वाशिंदा है, जहां के आजादी गीत में भी सुस्वादु भोजन के ही सपने थे।
इनके पूर्वज इसी नारे पर अंग्रेजों से लड़े थे। सिद्धेश्वर यह गीत कभी कभी गुनगुनाता भी था।
“गोहूं के रोटिया रहरिया के दलिया
तनि घिऊओ परिहें ना
जब मिलिहें अजदिया
तनि घिऊओ परिहें ना”
तीर्थ सेवन से भरी आत्मा , सुंदर भोजन से तृप्त मन और अपूर्व सुंदरी के संग से प्रमुदित हृदय। अदिति का भी हाल लगभग यही।
अयोध्या से लौटते तन मन एक होते रहे। एक हैं।फिर भी दोनों तरफ़ बेनाम सी उलझन जैसे मिले हों दुल्हा-दुल्हन!
अदिति प्रेम प्रदर्शित भी करती है, कहती भी है। सिद्धेश्वर कहता नहीं पर आचरण व्यवहार से संकेत होता है कि वह भी प्रेम में है।
इश्क का सालन तो मुसलसल पक चुका है
वो हलाल नहीं खाता वो झटका नहीं खाती
अदिति कहती है। तुम्हें कुछ नहीं कहना।
“कल कहूंगा।”
यह दूल्हा दुल्हन अगले दिन काशी जाएंगे। कल कार्तिक चतुर्दशी है। हरिहर तत्व जाग्रत है।बिन्दुमाधव से तुलसीदल और मंजरियों की माला काशी विश्वनाथ को जा रही है, और काशीविश्वनाथ से बेलपत्रों की माला हार बिंदुमाधव को पहुंच रही।
दोनों को पहुंचना है काशी। पर तय रहा कि विंध्याचल होते चलेंगे।
लोग कहते हैं विंध्याचल शक्ति त्रिकोण है। हम एक बात कहते, मान लीजिए ,यह एक प्रेम त्रिकोण है। कामरूप कामाख्या भी प्रेम त्रिकोण स्थान है ,जब कि कामरूप की क्रियाविधि और विंध्याचल में बहुत अंतर है।
विंध्याचल प्रेरित करता है प्रपन्च से बाहर जाने के लिए। वास्तव में तो वहां दुनिया से हट जाने के लिए दरवाजे हैं । एक्जिट़ है।
और कमाल का आवरण है वहां। आप एक्जिट के लिए गये हैं। और वहां पण्डे, हज्जाम और माली आपको घेरेंगे। दुनिया से बाहर जाओगे? ऐसे कैसे? इधर आओ जरा तोल मोल करो।
सिद्धेश्वर इस तोल मोल में नहीं पड़ता। अदिति सिद्धहस्त है। गजब मेल है। प्रकृति कभी इन दोनों को गृहस्थ में उतारे तो यह बड़ा कमाल का जोड़ा होता।
खैर, विंध्य त्रिकोण की मध्यबिंदु ही विंध्यवासिनी है । और ये प्रेम त्रिकोण कमाल का है।
दुनिया के किसी भी तिकोने या वृत्त में आप बाहरी परिधि से प्रवेश करते हैं। यह जो त्रिकोण है, वहां आप केंद्र से प्रवेश करते हैं।
इस केंद्रबिन्दु की जो अधिष्ठात्री है, वहां प्रवेश शुल्क है।वह है संपूर्ण समर्पण। अहंकार खा जाने वाली शक्ति है वहां।
असमिया त्रिकोण कामरूप कामाख्या में नियम ऐसा नहीं है। कभी कथा उधर गयी तो कहेंगे।
खैर, यह जोड़ा विंध्यवासिनी, काली खोह, अष्टभुजा, मां आनंदमयी आश्रम, गंगा घाट यह सब घूम आया है।
शाम को भैरव कुंड, रामेश्वर, रामगया घाट, विन्धम फॉल, विजयगढ़ किला।
हो गयी यात्रा।
दोनों के तन मन महक रहे हैं
रात में निकल गये काशी के लिए।
अधीर अदिति!
सिद्धेश्वर तुम सात जन्मों के लिए मेरे हो सकते हो क्या?
क्रमशः
डॉ. मधुसूदन पाराशर
लक्ष्मणपुरी
चैत्र शुक्ल तृतीया
वि.सं. २०८०