साहित्य

अकेले में बताना है तो कल मिलना, कल….शिवमूर्ती जी द्वारा लिखित कहानी!

विवेक कुमार
================
किर्र-किर्र-किर्र घंटी बजती है।एक आदमी पर्दा उठाकर कमरे से बाहर निकलता है। अर्दली बाहर प्रतीक्षारत लोगों में से एक आदमी को इशारा करता है। वह आदमी जल्दी-जल्दी अंदर जाता है।

सबरे आठ बजे से यही क्रम जारी है।अभी दस बजे ए.डी.एम. साहब को दौरे पर भी जाना है, लेकिन भीड़ है कि कम होने का नाम ही नहीं ले रही।किसी की खेत की समस्या है तो किसी की सीमेंट की। किसी की चीनी की, तो किसी की लाइसेंस की। समस्याएं ही समस्याएं।

पौने दस बजे एक लम्बी घंटी बजती है।प्रत्युत्तर में अर्दली भागा-भागा भीतर जाता है।

“कितने मुलाक़ाती हैं अभी?”
“हुजूर, सात-आठ होंगे।”
“सबको एक साथ भेज दो।”

अगले क्षण कई लोगों का झुंड अंदर घुसता है, लेकिन दस-ग्यारह साल का एक लड़का अभी भी बाहर बरामदे में खड़ा है। अर्दली झुंझलाता है, “जा-जा तू भी जा।”

“मुझे अकेले में मिला दो,” लड़का फिर मिनमिनाता है।

इस बार अर्दली भड़क जाता है, “आखि़र ऐसा क्या है, जो तू सबेरे से अकेले-अकेले की रट लगा रहा है. क्या है इस चिट्ठी में, बोल तो, क्या चाहिए-चीनी, सीमेंट, मिट्टी का तेल?”

लड़का चुप रह जाता है। चिट्ठी वापस जेब में डाल लेता है।

अर्दली लड़के को ध्यान से देख रहा है।मटमैली-सी सूती कमीज और पायजामा, गले में लाल रंग का गमछा, छोटे-कड़े-खड़े-रूखे बाल, नंगे पांव। धूल-धूसरित चेहरा, मुरझाया हुआ। अपरिचित माहौल में किंचित सम्भ्रमित, अविश्वासी और कठोर दूर देहात से आया हुआ लगता है।

कुछ सोचकर अर्दली आश्वासन देता है, “अच्छा, इस बार तू अकेले में मिल ले।” लेकिन जब तक अंदर के लोग बाहर आएं, साहब ऑफिस-रूम से बेड-रूम में चले जाते हैं।

ड्राइवर आकर जीप पोंछने लगता है। फिर इंजन स्टार्ट करके पानी डालता है। लड़का जीप के आगे-पीछे हो रहा है।

थोड़ी देर में अर्दली निकलता है। साहब की मैगज़ीन, रूल, पान का डिब्बा, सिगरेट का पैकेट और माचिस लेकर।फिर निकलते हैं साहब, धूप-छांही चश्मा लगाए. चेहरे पर आभिजात्य और गम्भीरता ओढ़े हुए।

लड़के पर नज़र पड़ते ही पूछते हैं, “हां, बोलो बेटे, कैसे?”

लड़का सहसा कुछ बोल नहीं पा रहा है।वह सम्भ्रम नमस्कार करता है।

“ठीक है, ठीक है।” साहब जीप में बैठते हुए पूछते हैं, “काम बोलो अपना, जल्दी, क्या चाहिए?”

अर्दली बोलता है, “हुजूर, मैंने लाख पूछा कि क्या काम है, बताता ही नहीं। कहता है, साहब से अकेले में बताना है।”
“अकेले में बताना है तो कल मिलना, कल।”

जीप रेंगने लगती है।लड़का एक क्षण असमंजस में रहता है फिर जीप के बगल में दौड़ते हुए जेब से एक चिट्ठी निकालकर साहब की गोद में फेंक देता है।

“ठीक है, बाद में मिलना”, साहब एक चालू आश्वासन देते हैं। तब तक लड़का पीछे छूट जाता है।लेकिन चिट्ठी की गंवारू शक्ल उनकी उत्सुकता बढ़ा देती है। उसे आटे की लेई से चिपकाया गया है।

सबेरे थोड़ा दूध या चाय मिल सके।रात को सोते समय पूछती, “अभी कितनी किताब और पढ़ना बाक़ी है, साहबीवाली नौकरी पाने के लिए।”

वे उसके प्रश्न पर मुस्करा देते, “कुछ कहा नहीं जा सकता। सारी किताबें पढ़ लेने के बाद भी ज़रूरी नहीं कि साहब बन ही जाएं।”

‘‘ऐसा मत सोचा करिए,” वह कहती, “मेहनत करेंगे तो भगवान उसका फल जरूर देंगे।”

यह उसी के त्याग, तपस्या और आस्था का परिणाम था कि एक ही बार में उनका सेलेक्शन हो गया था। परिणाम निकला तो वे ख़ुद आश्चर्यचकित थे। घर आकर एकांत में पत्नी को गले से लगा लिया था।वाणी अवरूद्ध हो गई थी। उसको पता लगा तो वह बड़ी देर तक निस्पंद रोती रही, बेआवाज़. सिर्फ़ आंसू झरते रहे थे। पूछने पर बताया, ख़ुशी के आंसू हैं ये। गांव की औरतें ताना मारती थीं कि ख़ुद ढोएगी गोबर और भतार को बनाएगी कप्तान, लेकिन अब कोई कुछ नहीं कहेगा, मेरी पत बच गई।

वे भी रोने लगे थे उसका कंधा पकड़कर।

जाने कितनी मनौतियां माने हुए थी वह।सत्यनारायण… संतोषी… शुक्रवार… विंध्याचल… सब एक-एक करके पूरा किया था। ज़रा-जीर्ण कपड़े में पुलकती घूमती उसकी छवि, जिसे कहते हैं, राजपाट पा जाने की ख़ुशी

सर्विस ज्वाइन करने के बाद एक-डेढ़ साल तक वे हर माह के द्वितीय शनिवार और रविवार को गांव जाते रहे थे. पिता, पत्नी, पुत्री सबके लिए कपड़े-लत्ते तथा घर की अन्य छोटी-मोटी चीज़ें, जो अभी तक पैसे के अभाव के कारण नहीं थीं, वे एक-एक करके लाने लगे थे। पत्नी को पढ़ाने के लिए एक ट्यूटर लगा दिया था, पत्नी की देहाती ढंग से पहनी गई साड़ी और घिसे-पिटे कपड़े उनकी आंखों में चुभने लगे थे। एक-दो बार शहर ले जाकर फ़िल्म वगैरह दिखा लाए थे, जिसका अनुकरण कर वह अपने में आवश्यक सुधार ले आए। खड़ी बोली बोलने का अभ्यास कराया करते थे, लेकिन घर-गृहस्थी के अथाह काम और बीमार ससुर की सेवा से इतना समय वह न निकाल पाती, जिससे पति की इच्छा के अनुसार अपने में परिवर्तन ला पाती।वह महसूस करती थी कि उसके गंवारपन के कारण वे अक्सर खीज उठते और कभी-कभी तो रात में कहते कि उठकर नहा लो और कपड़े बदलो, तब आकर सोओ। भूसे जैसी गंध आ रही है तुम्हारे शरीर से।उस समय वह कुछ न बोलती।चुपचाप आदेश का पालन करती, लेकिन जब मनोनुकूल वातावरण पाती तो मुस्कराकर कहती, “अब मैं आपके ‘जोग’ नहीं रह गई हूं, कोई शहराती ‘मेम’ ढूंढ़िए अपने लिए।

ममता से किया जा सकता। दोनों बच्चे तब तक ठीक हो चुके थे, लेकिन उनके पहुंचने के साथ ही उसकी आंखें झरने-सी झरनी शुरू हो गई थीं।कुछ बोली नहीं थी। रात में फिर वही गीत बड़ी देर तक गाती रही थी।उनका हाथ पकड़कर कहा था, “लगता है, आप मेरे हाथों से फिसले जा रहे हैं और मैं आपको संभाल नहीं पा रही हूं।”

वे इस बार कोई आश्वासन नहीं दे पाए थे।उसका रोना-धोना उन्हें काफी अन्यमनस्क बना रहा था। वे उकताए हुए से थे। अगले ही दिन वे वापस जाने को तैयार हो गए थे।घर से निकलने लगे तो वह आधे घंटे तक पांव पकड़कर रोती रही थी। फिर लड़की को पैरों पर झुकाया था, नन्हे लालू को पैरों पर लिटा दिया था। जैसे सब कुछ लुट गया हो, ऐसी लग रही थी वह, दीन-हीन-मलिन।

वे जान छुड़ाकर बाहर निकल आए थे।वही उनका अंतिम मिलन था।तब से दस साल के क़रीब होने को आए, वे न कभी गांव गए, न ही कोई चिट्टी-पत्री लिखी

हां, क़रीब साल भर बाद पत्नी की चिट्ठी ज़रूर आई थी। न जाने कैसे उसे पता लग गया था, लिखा था-कमला नई अम्मा के बारे में पूछती है। कभी ले आइए उनको गांव

दिखा-बता जाइए कि गांव में भी उनकी खेती-बारी, घर-दुवार है।लालू अब दौड़ लेता है। तेवारी बाबा उसका हाथ देखकर बता रहे थे कि लड़का भी बाप की तरह तोता-चश्म होगा।जैसे तोते को पालिए-पोसिए, खिलाइए-पिलाइए, लेकिन मौका पाते ही उड़ जाता है. पोस नहीं मानता। वैसे ही यह भी… तो मैंने कहा, ‘बाबा, तोता पंछी होता है, फिर भी अपनी आन नहीं छोड़ता, जरूर उड़ जाता है, तो आदमी होकर भला कोई कैसे अपनी आन छोड़ दे? पोसना कैसे छोड़ दे? मैं तो इसे इसके बापू से भी बड़ा साहब बनाऊंगी…’

उन्होंने पत्र का कोई उत्तर नहीं भेजा था।हां, वह पत्र ममता के हाथों में ज़रूर पड़ गया था, जिसके कारण महीनों घर में रोना-धोना और तनाव व्याप्त रहा था…. और क़रीब नौ साल बाद आज यह दूसरा पत्र है।

पत्र उनके हाथों में बड़ी देर तक कांपता रहा और फिर उसे उन्होंने जेब में रख लिया। मन में सवाल उठने लगे-क्या मिला उसको उन्हें आगे बढ़ाकर? वे बेरोज़गार रहते, गांव में खेती-बारी करते।वह कंधे से कंधा भिड़ाकर खेत में मेहनत करती। रात में दोनों सुख की नींद सोते।तीनों लोकों का सुख उसकी मुट्ठी में रहता।छोटे से संसार में आत्मतुष्ट हो जीवन काट देती। उन्हें आगे बढ़ाकर वह पीछे छूट गई।माथे का सिंदूर और हाथ की चूड़ियां निरंतर दुख दे रही हैं उसे।

सारे दिन किसी कार्यक्रम में उनका मन नहीं लगता।

शाम को जीप वापस लौट रही है। उनके मस्तिष्क में लड़के का चेहरा उभर आया है-जैसे मरूभूमि में खड़ा हुआ अशेष जिजीविषा वाला बबूल का कोई शिशु झाड़, जिसे कोई झंझावात डिगा नहीं सकता। कोई तपिश सुखा नहीं सकती। उपेक्षा की धूप में जो हरा-भरा रह लेगा, अनुग्रह की बाढ़ में जो गल जाएगा।

जीप गेट के अंदर मुड़ती है तो गेट से सटे चबूतरे पर लड़का औंधा लेटा दिखाई देता है।मच्छरों से बचने के लिए उसने अंगौछे से सारा शरीर ढंक लिया है। जीप आगे बढ़ जाती है।

अंदर उनकी चार साल की बेटी टीवी देख रही है।आहट पाकर दौड़ी आती है और पैरों से लिपट जाती है।फिर महत्वपूर्ण सूचना देती है तर्जनी उठाकर, “पापा, पापा, ओ बदमाश लड़का, बरामदे तक घुस आया था। मम्मी पूछती, तो बोलता नहीं था।भगाती तो भागता नहीं था। मैंने अपनी खिलौना मोटर फेंककर मारा, उसका माथा कटने से ख़ून बहकर मुंह में जाने लगा तो थू-थू करता हुआ भागा। और पापा, वह ज़रूर बदमाश था। ज़रा भी नहीं रोया।बस, घूर रहा था. बाहर चपरासियों के लड़के मार रहे थे, लेकिन मम्मी ने मना करवा दिया।”

वाश-बेसिन की तरफ़ बढ़ते हुए वे ममता से पूछते हैं, “कौन था?”

“शायद आपके गांव से आया है। भेंट नहीं हुई क्या?”

“मैं तो अभी चला आ रहा हूं, कहां गया?”

“नाम नहीं बताता था, काम नहीं बताता था, कहता था, सिर्फ़ साहब को बताऊंगा। फिर लड़के तंग करने लगे तो बाहर चला गया।”

“कुछ खाना-पीना?”

“पहले यह बताइए, वह है कौन?” एकाएक ममता का स्वर कर्कश और तेज़ हो गया, “उस चुड़ैल की औलाद तो नहीं, जिसे आप गांव का राज-पाट दे आए हैं? ऐसा हुआ तो ख़बरदार, जो उसे गेट के अंदर भी लाए, ख़ून पी जाऊंगी।”

वे चुपचाप ड्राइंगरूम में आकर सोफे पर निढाल पड़ गए हैं।चक्कर आने लगा है।शायद रक्तचाप बढ़ गया है।

बाहर फागुनी जाड़ा बढ़ता जा रहा है।

सबेरे उठकर वे देखते हैं-चबूतरे पर ‘गांव’ नहीं है।

वे चैन की सांस लेते हैं।

शिवमूर्ती जी द्वारा लिखित कहानी।