K P Malik
@TheKPMalik
भाजपा सरकार के परिसीमन के सियासी मायने
ऐसा नहीं है कि केंद्र की मोदी सरकार परिसीमन की कोशिश या तैयारी कोई पहली बार कर रही है, उसने नई संसद में जो सीटें बढ़वाकर बनवाई हैं, वो इसी रणनीति का एक हिस्सा है और इसकी चर्चा पिछले चार-पांच साल से देश में चल रही है, लेकिन अब इस दिशा में मोदी सरकार काम भी कर रही है, जिसके तहत लोकसभा की 543 सीटों की जगह तकरीबन 848 सीटें तक करने की बात सामने आ रही है। और इसमें भाजपा को फायदा इसलिए नजर आ रहा है क्योंकि जिन राज्यों की आबादी पिछले 4-5 दशक में तेजी से बढ़ी है, उनमें खास तौर पर उत्तर भारत के राज्य हैं, जिनमें पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़, बिहार झारखंड, ओडिशा और कुछ अन्य राज्य हैं।
इसके अलावा पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, हिमाचल जैसे राज्य हैं। अब परिसीमन से होगा ये कि जिन राज्यों में जितनी जनसंख्या है, उसके हिसाब से लोकसभा और राज्यसभा सीटें बढ़ेंगी। साथ ही विधानसभा सीटें भी बढ़ेंगी। भाजपा सोचती है कि गुजरात उसके कब्जे में है ही और बाकी राज्यों में सीटें बढ़ाने से उसे फायदा होगा। जिससे इन्हीं राज्यों के दम पर वो केंद्र की सत्ता में आसानी से पहुंचती रहेगी। इसमें उदाहरण के तौर पर अगर हम देखें, तो उत्तर प्रदेश में 80 की जगह 128 लोकसभा सीटें होने की उम्मीद है, और बिहार में 40 की जगह 70-72 और इसी प्रकार से दूसरे उत्तरी राज्यों में सीटें तकरीबन डेढ़ से दोगुनी तक हो जाएंगी। लेकिन दक्षिणी राज्यों में या तो न के बराबर सीटें बढ़ेंगी या फिर कम भी हो सकती हैं।
भाजपा ये अच्छी तरह जानती है कि दक्षिणी राज्यों में उसकी दाल आसानी से नहीं गलेगी, इसलिए कुछ ऐसा कर दो कि उत्तर भारत के राज्यों के अलावा कुछ अन्य राज्यों में ही उसे केंद्र में सरकार बनाने लायक बहुमत मिल जाए और उसके लिए उसके पास परिसीमन करके लोकसभा की सीटें बढ़ाने से अच्छा दूसरा कोई रास्ता नहीं है। लेकिन इस परिसीमन से पहले जो देश की जनगणना होनी चाहिए केंद्र की मोदी सरकार उसे कराने को राजी नहीं है, क्योंकि अगर देश में जनगणना हुई, तो जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उनती हिस्सेदारी के हिसाब से लोग नौकरियों और राजनीति में हिस्सेदारी की मांग करने लगेंगे, और इस प्रकार न सिर्फ एक नया मुद्दा देश में खड़ा हो जाएगा, बल्कि इस मुद्दे के उठते ही केंद्र की मोदी सरकार, भाजपा और संघ के लिए एक नई चुनौती खड़ी हो जाएगी, जिससे निपट पाना उसके लिए और बड़ी मुसीबत मोल लेने जैसा साबित होगा।
बहरहाल, ये मामला काफी बड़ा है, जिस पर कम शब्दों में पूरी बात कह पाना मुमकिन नहीं है। लेकिन अगर हम परिसीमन की बात करें, तो ये करीब देश में पांच दशकों से ज्यादा समय बीत जाने के बावजूद नही हुआ है, जिसकी लंबी कहानी है। क्योंकि परिसीमन पर न सिर्फ इंदिरा गांधी ने रोक लगाई थी, बल्कि भाजपा के ही नेता और प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेई ने भी परिसीमन को उचित नहीं माना। देश में पहला परिसीमन आजाद हिंदुस्तान में पहली सरकार गठन होने के लिए साल 1951 में किया गया था। उसके 10 साल बाद यानि साल 1963 में जनगणना हुई और परिसीमन हुआ, उसके 10 साल बाद फिर यानि साल 1973 में देश में जनगणना के बाद परिसीमन हुआ था। पहले परिसीमन के दौरान लोकसभा की सीटें 494 थीं, दूसरे परिसमीन में इन्हें बढ़ाकर 522 कर दिया गया और तीसरे परिसीमन में लोकसभा की ये सीटें 573 की गईं, इसके बाद से न तो देश में कोई परिसीमन हुआ और न लोकसभा की सीटें ही बढ़ीं।
हालांकि जनगणना हुई, लेकिन साल 2011 के बाद से उस पर भी ब्रेक लग गया, जिसके लिए केंद्र की मोदी सरकार ही जिम्मेदार है, जो तकरबीन 14 साल बाद भी जनगणना नहीं कराना चाहती है। जब साल 2001 में अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार केंद्र में बनी, तो उसने तकरीबन परिसीमन को 50 साल से ज्यादा समय यानि साल 2056 तक के लिए इसे टालने की बात कहकर रोक दिया था। लेकिन अब केंद्र की मोदी सरकार को जब केंद्र और राज्यों की सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने के लिए कोई ठोस तरीका नहीं सूझ रहा है, तो वो सीटें बढ़ाकर अपनी आगे की राह आसान करना चाह रही है, जिसका विरोध उठना लाजिमी है। राजनीति के कुछ जानकार ये भी मान रहे हैं कि परिसीमन की चाल प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार या कहे कि भाजपा को महंगी भी पड़ सकती है।
डिस्क्लेमर : लेखक के निजी विचार हैं, लेख X पर वॉयरल हैं, तीसरी जंग हिंदी का कोई सरोकार नहीं!