साहित्य

”चुप में जो सुख है वो सबसे कीमती है”….मृत्यु के क्षण में लोग तड़पते क्यों हैं?

तृप्त …🖤
@yaduvanshi32
🔥मृत्यु के क्षण में लोग तड़फते क्यों हैं?
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तुमने किसी पक्षी को मरते देखा ? ऐसे सरल, ऐसे सहज, चुपचाप विदा हो जाता है! पंख भी नहीं फड़फड़ाता। शोरगुल भी नहीं मचाता। पक्षी तो इतने चुपचाप विदा हो जाते हैं, इतनी सरलता से विदा हो जाते हैं! ज़रा नोच-खचोंट नहीं। ज़रा शोरगुल नहीं। तुमने पशुओं को मरते देखा? मौत में भी एक अपूर्व शांति होती है।

आदमी को मरते देखो–कितना उपद्रव मचाता है, कितना रोकने की अपने को चेष्टा करता है! क्या होगा कारण? कारण हैः जिंदगी व्यर्थ गई और मौत आ गई। अब आगे कोई समय न बचा। खाली आए खाली गए, कुछ भराव नहीं और यह मौत आ गई। तड़फे न आदमी तो क्या करे ?

 

भरे हुए आदमी ही शांति से मर सकते हैं। हां, बुद्ध विदा होते हैं शांति से, उल्लास से, उमंग से; जैसे किसी प्यारी यात्रा पर जाते हों! ज़रा भी क्षण-भर को भी, कण-भर को भी मोह नहीं होता इस तट से बंधे रहने का। छोड़ देते अपनी नाव उस पार जाने को। खोल देते अपने पंख। विराट की पुकार आ गई, आवाज आ गई, संदेश आ गया। रुकना कैसा? फिर इस तट को खूब जी लिया, मन भर कर जी लिया जी भरकर जी लिया! इस तट के गीत भी सुन लिए, इस तट का गीत भी गा लिया। इस तट के नृत्य भी देख लिए, इस तट का नाच भी नाच लिया। इस तट पर जो भी सुंदर था, जो भी मूल्यवान था, सबका स्वाद ले लिया। जाने की घड़ी आ ही गई। अब और तटों पर होंगे। अब और नृत्य और गीत उठेंगे। अब और दीए जलेंगे। एक उल्लास है। एक जाने की तत्परता है। अगर गीत न गाया गया हो तो मुश्किल खड़ी होती है।

मृत्यु पीड़ा है, क्योंकि गीत गाया नहीं गया है। गीत गाने की तो बात दूर, साज भी टूट गया है। वीणा के तार भी उखड़ गए हैं। वाद्य भी विकृत हो गया है। आवाज भी मर गई है। यह आवाज जो गीत गाने को दी गई थी, गालियां देते-देते मर गई है। ये प्राण जो प्रार्थना के लिए दिए थे, इनका प्रार्थना से तो कोई संबंध ही न जुड़ा; ये तो पद-प्रतिष्ठा की आपा-धापी में ही टूट गए हैं, उखड़ गए हैं। ये धड़कनें जो परमात्मा के साथ नाचने के लिए थीं, इन्हें तो बड़े सस्ते में बाजार में बेच आए हो।

आत्मा बेच कर मरते हैं लोग, तो रोते हुए मरते हैं। अपना गीत तो निश्चित गाना है। और यह गीत तुम्हारे गाए नहीं गाया जा सकता। तुम्हें राह देनी है कि परमात्मा गा सके। और यह गीत जब गाया जाता है तो पता चलता है अपना है न पराया है, उसका है।

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तृप्त …🖤
@yaduvanshi32
दुनिया के किसी भी होटल में हमने किसी औरत को खाना बनाते नहीं देखा है। संसार का कोई भी बड़ा शेफ सामान्यत : औरत नहीं है। बच्चों की देखभाल के छोटे छोटे सेंटर जगह जगह खुल ही रहे हैं।

बहुत से पुरुष विभिन्न अवसरों पर औरतों या लड़कियों को मेंहदी लगा रहे हैं। ऐसे ढेर सारे काम हैं जो घरों में औरतें करती आ रही हैं। पर जैसे ही उस काम से पैसे मिलने शुरू होते हैं तो औरत पीछे छूट जाती है।

अर्थात जब कभी सदियों से किसी औरत के द्वारा किए जाने वाले काम के साथ अर्थ ( पैसा ) जुड़ता है तो आदमी औरत को रिप्लेस कर देता है। भारत में भी 1962 तक औरतों द्वारा घर में किए गए काम को देश की GDP में गिना जाता था।

सच तो यह है कि औरतों द्वारा किया जाने वाला घर का काम किसी ऑफिस की जॉब से ज्यादा कठिन होता है। किसी बिजनेसमैन की तरह ही व्यस्तता होती है। साल के 365 दिनों में से किसी भी दिन छुट्टी नहीं।

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सच यही है कि एक हाउसवाइफ का काम बहुत कठिन और जिम्मेदारी भरा होता है। स्त्री घर पर है। तभी हम लोग बाहर काम कर पाते हैं।

अपना नज़रिया बदल लीजिए। हाउसवाइफ का सम्मान कीजिए। उनकी कीमत उनके न होने पर पता लगती है। दुनिया के सभी धर्मों ने औरत के खिलाफ ही नियम कानून और धार्मिक कर्म निर्धारित किए हैं। किसी ने ज्यादा , किसी ने कम।

आदमी और बाजार ने औरत को केवल कम कपड़े पहनकर शरीर दिखाने भर की स्वतंत्रता दी है। तो किसी ने औरत को ढकने के नाम पर पूरी तरह से उनको कैद करके रख दिया है।

किसी ने भी उनको नेचुरल नहीं रहने दिया है। वह इंसान नहीं वस्तु के रूप में ट्रीट होने लगती है। औरत की कोख से जन्म लेने वाला आदमी खुद औरत की नियति का निर्धारण कैसे कर सकता है।

यह नाक , कान छिदवाना। कान की बाली , गले का हार , नाक में रिंग आदि आभूषण वास्तव में एक लड़की को प्रचलित अर्थों में औरत के रूप में ढालने के औजार हैं और कुछ नहीं।

ये औरत को कमजोर बनाते हैं। अपनी बच्चियों से कहिए कि वे आभूषणों के साथ कॉपी और पेन मांगे। भारत का संविधान मांगे। उसे जानें उसे पढ़ें। अच्छा साहित्य पढ़ें। अच्छी किताबें पढ़ें।अपनी सूझबूझ के साथ भारत की छवि को और निखारें।

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चुप का सुख
चुप रहना कितना सुखदायी होता है। न बेकार में शब्दों का खर्च न ही बोलने में एनर्जी खपाना। होंठ, दांत,जीभ, दिमाग सब को आराम मिलता है।
कई बार होता है न किसी से बात करते वक्त, या किसी ग्रुप में किसी विषय पर चर्चा के दौरान ये अहसास होता है कि काश बोलना शुरू ही न किया होता? बेवजह के तर्क-वितर्क से बच जाते। बात कहीं से शुरु होती है फिर दिशा बदल कहीं और निकल जाती है। फिर विषय से भटकती हुई बातें व्यक्तिगत होती हुई दिल को चोट पहुंचाकर चली जाती हैं।
कभी कभी किसी से ऐसी ही किसी बात पर ठन जाती है फिर रिश्ते में पसर जाता है मौन। न वो कुछ कहते हैं न हम। बस अंधेरी रात सी कालिमा बिखरी होती है बीच में। कोई गलतफहमी, कोई निष्कर्ष, कोई ऐसी बात जो किसी ने कही नहीं पर दूसरे ने सुन ली किसी और कि जुबां से, ऐसी कितनी वजह होती हैं जब लगता है कुदरत या ईश्वर ने तोहफ़ा दिया क्यों मनुष्य को।

शान घट जाती या दर्जा तुम्हारा कम होता
गुस्से में कहा तुमने वो प्यार से कहा होता।

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कई बार यूँ ही गुस्से में कही बात तीर सी चुभ जाती है। आहत होता है मन और दूरियाँ बढ़ जाती हैं। फिर लाख करें कोशिश न वो खाई पटती है न दूरियाँ मिटती हैं। जाने कितने ही रिश्ते इसी गुस्से की वजह से खत्म हो जाते हैं। रह जाती है एक दूसरे के लिए नफ़रत। भाई-भाई हों या दोस्त या फिर माता पिता, पति-पत्नी हों या प्यारी सी बहन। हर रिश्ते में जब भी बात बिगड़ती है बातें एक बड़ा कारण होती हैं। कोई कान भर जाता है, कोई बात का मतलब वो निकाल लेता है जो कहने वाले ने कहा नहीं। कभी बात का बतंगड़ बन जाता है कई जुबानों से होकर गुजरते हुए।
बोलते तो लगभग हर प्राणी हैं। ईश्वर ने सभी को जुबान भी दी और व्यक्त करने की शक्ति भी। पर मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसने भाषा ईजाद की, लिपि बनाई, पढ़ना सीखा और याद रखना भी सीख गया। मुश्किल शायद यहीं से शुरू हुई होगी। जब भाषाओं का विस्तार हुआ होगा, एक शब्द के अनेक अर्थ बनने लगे होंगे तो वाक्य के भी अर्थ बदलने लगे होंगे। एक कॉमा पूरे वाक्य का भाव बदल देता है।

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ऊपर से कहने के लहजे ने भी करामात दिखाई। हल्का सा मुंह बना बोलते वक्त, ज़ुबान टेढ़ी हुई ज़रा सी और कहे का अर्थ बदल गया। हर शब्द का अपना रूप रंग है, हर शब्द के अलग अलग मायने। आंखों में प्यार भरकर, नरमी से कहिए और हल्के से आंख तरेरकर ज़ुबान तीखी कर वही शब्द बोलिये, मायने बदल जायेंगे, सुनने वाले का व्यवहार बदल जाएगा।
इसीलिए किसी विद्वान ने कहा भी “अच्छा वक्ता होने से ज्यादा जरूरी है अच्छा श्रोता होना।” ऋषियों ज्ञानियों को देखिये जितनी ज़रूरत होती है उतना ही बोलते हैं। बेकार की बकबक नहीं करते। क्योंकि उन्हें मालूम है शब्दों की शक्ति का सही इस्तेमाल कैसे किया जाता है। मन के भाव जब बाहर निकलने को उमड़े, पेट में जब शब्द गुदगुदाए उन्होंने कोई मंत्र या सूक्ति या ग्रन्थ लिख दिया।

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जितना प्रभाव घण्टों का प्रवचन का होता है उससे कहीं ज्यादा एक सार्थक पँक्ति प्रभावशाली होती है। ये सही है कि बोलने बकबक करने का अपना अलग ही मजा है। चार महिलाओं के बीच ये मौन शून्य हो जाता है, माइक पर खड़े होकर भाषण देने का आनंद अलग होता है, उसके बाद भी मौन का अपना अलग प्रभाव होता है। चुप में जो सुख है वो सबसे कीमती है। रिश्तों को कायम रखने, सम्बधों में नरमी रखने के लिए मान अपमान को पी जाने के लिए, मौन से बेहतर दवाई कुछ नहीं।

©संजय मृदुल

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Harish Yadav 

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कर्जदार
“सरिता! वो कपड़े की दुकान वाले भाई साहब ने उधार देने से मना कर दिया।कहा कि अभी शादी की खरीदारी के ही थोड़े पैसे बाकी हैं” मैंने मायूस होकर धीरे से कहा।दामाद बाबू दूसरे कमरे में थे। शादी के बाद पहली बार नीरू को लेकर आये हैं। बड़े साधारण तरीके से शादी निपटाई फिर भी रिश्तेदारों और संबधियों की खातिरदारी में सर पर थोड़ा उधार हो गया है। दामाद बाबू अच्छी नौकरी में हैं मगर वो और उनके घर वाले इतने अच्छे हैं कि हमसे कुछ मांगा नहीं। पर हमारा कुछ फर्ज तो बनता ही है। पहली बार आये हैं तो खाली हाथ कैसे विदा करूं। एक छोटे से कर्मचारी के लिए ये बड़ी मुश्किल वक़्त है। मैं अपने माथे पर आए पसीने को पोछ ही रहा था कि पत्नी ने सुझाव दिया
“पड़ोस के गुप्ता जी से कुछ पैसे उधार ले लो..दामाद बाबू जाने के लिए तैयार हो रहे हैं। खाली हाथ नहीं भेज सकते उन्हें”
हमारे लिए किसी से उधार लेना कोई नई बात नहीं थी।मेरे कदम फिर से बढ़ चले अपनी शर्मिंदगी को किनारे रखने,कि तभी सामने दामाद बाबू को देख मैं ठिठक गया
“दामाद जी आप!” शायद उन्होंने पूरी बात सुन ली थी।
“आप मुझे देने के लिए किसी से उधार लेने जा रहे हैं पापा?मैं अब आपका अपना हूँ !अब आपकी परेशानी मेरी अपनी है। आपका यूँ किसी के आगे शर्मिंदा होना क्या मुझे अच्छा लगेगा?”
मैं उनसे नज़रे भी नहीं मिला पा रहा था। ये सोचकर कि अब नीरू और हमारी क्या इज़्जत रह गई इनकी नज़र में
“वो.. दरअसल ..मैं..”
अपनी झूठी शान को छुपाते हुए मेरी जुबान साथ नहीं दे रही थी
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या जवाब दूँ।
“पापा दिखावे से कहीं ज्यादा अच्छा अपनी खुद की स्थिति देखना होता है! आप बड़े हैं।आपसे ये सब कहते अच्छा नहीं लग रहा है। पर एक बेटे के नाते आप आज अपनी सारी उधारी बताएंगे”
“बस बेटे..बस” मेरे आँसू बह निकले। उन्होंने गले लगा लिया
“आप मुझे अपने आशीर्वाद और इस वादे के साथ विदा कीजिये पापा कि फिर कभी दिखावे के लिए कर्ज नहीं लेंगे”
मैंने वादा किया कि कभी कर्ज नहीं लूंगा, मगर इस रूप में एक बेटा देकर, मेरी किस्मत ने मुझे कर्जदार जरूर बना दिया..!