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ओबीसी हिंदू भाईयों, भारत को अगर बचाना है तो फ़ोटो में दिख रहे इन दोनो को एक करना होगा…

निर्वाण बोधी
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ओबीसी हिंदू भाईयों, भारत को अगर बचाना है तो फ़ोटो में दिख रहे इन दोनो को एक करना होगा..
आज जिस तरह से इस देश में कट्टरवाद का माहौल बन रहा है.. यह देश के लिये चिंताजनक सवाल है..

साथियों.. जब तिलक और जिन्ना बने थे हिंदू-मुस्लिम एकता के सूत्रधार.. भारत को बहुलतावादी और एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र से ‘हिंदू राष्ट्र’ में बदलने की व्यवस्थित कोशिश जारी है. ऐसे वक्त में हमें स्वतंत्रता संग्राम के अपने प्रबुद्ध नेताओं की विरासत पर गौर करने की ज़रूरत है ताकि हिंदू-मुस्लिम एकता और भारत-पाकिस्तान की दोस्ती की कोई नई राह तलाश की जा सके.

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की दो घटनाएं हिंदू-मुस्लिम एकता के मील का पत्थर कही जा सकती हैं. इन दोनों घटनाओं में हिंदू-मुस्लिम एकता अपने शिखर पर पहुंच गई थी. एक थी 1857 में आज़ादी की पहली लड़ाई. यह वह समय था जब हिंदू और मुसलमान पेशावर से ढाका तक लालची ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ कंधे से कंधा मिला कर लड़े थे. दूसरा अहम वाक़या था लखनऊ में कांग्रेस और मुस्लिम लीग का समझौता. यह समझौता 1916 में हुआ था और उसके मुख्य वास्तुकार थे तिलक और जिन्ना. अगर समझौते की यह भावना बरकरार रहती तो शायद स्वतंत्रता संग्राम का नतीजा कुछ अलग और बेहतर होता.

जब गंगाधर तिलक को 1908 में गिरफ्तार किया गया.. तो उन्हें छह साल की सश्रम कारावास की सजा सुना कर बर्मा की मांडले जेल भेज दिया गया. तो देश केसभी जातियों के हिंदुओं और मुस्लिमों ने बॉम्बे (मुंबई) को छह दिन के लिए ठप कर दिया. तिलक को दी गई हर एक साल की सजा के विरोध में एक दिन का बंद रखा गया यानी छह साल की सजा के लिए छह दिन. तिलक के ख़िलाफ़ राजद्रोह का मामला चलाया गया. उनके ख़िलाफ़ जब तीसरी बार 1916 में राजद्रोह का मामला चला तो युवा वकील और भारतीय राजनीति के उभरते सितारे मोहम्मद अली जिन्ना ने उनका सफलतापूर्वक बचाव किया था.. तिलक के असंख्य प्रशंसकों में मौलाना हसरत मोहानी भी थे. मौलाना हसरत मोहानी एक प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी और उर्दू के शायर थे. मौलाना ने ही इंक़लाब ज़िंदाबाद का नारा पहली बार दिया था. वह तिलक को अपना मेंटर और गुरु मानते थे. 1908 में तिलक को जब जेल भेज गया तो उन्होंने लोकमान्य की शान में एक गज़ल लिखी.

क्या तिलक मुस्लिम विरोधी थे? बिल्कुल नहीं ! – यह दुर्भाग्य है कि कुछ इतिहासकारों ने तिलक की विरासत को ग़लत ढंग से दिखाने की कोशिश की है. उन्हें ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ और इस तरह से ‘मुस्लिम विरोधी’ के तौर पर दिखाया गया है. इन इतिहासकारों का कहना है कि उन्होंने गणेश और शिवाजी महोत्सवों का आयोजन कर ‘हिंदू पुनरुत्थानवाद’ को बढ़ाने की कोशिश की. लेकिन वे इस बात की अनदेखी करते हैं कि उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को आम आदमी से जोड़ने के लिए ऐसा किया था. वे बड़े ही सुविधानजक तरीके इस बात को नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि पुणे में तिलक अपने मुस्लिम भाइयों के साथ मोहर्रम के जुलूस में भी शामिल होते थे. स्वतंत्रता आंदोलन को नेतृत्व देने के दौरान तिलक को यह पक्का विश्वास हो गया था कि भारत की मुक्ति और भविष्य की तरक्की के लिए हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच एकता निहायत ज़रूरी है. उन्होंने इस बात पर बार-बार ज़ोर दिया कि भारतीय राष्ट्रवाद ‘साझा’ है- मतलब इसमें हिंदू-मुस्लिम दोनों के लिए बराबर की जगह है. यह हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद ही भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ और पाकिस्तान को ‘इस्लामी देश’ बनाने के पैरोकारों के लिए नफ़रत फैलाने का औजार बन गया.

वे हिंदू-मुस्लिम भाईचारे के बेहतरीन दिन थे. जब अंतिम संस्कार के बाद तिलक की अस्थियां एक विशेष ट्रेन से उनके पैतृक शहर पुणे लाई गईं तो इसके साथ चल रहा जुलूस एक मस्जिद के सामने रुका. लोगों ने वहां अपने प्रिय नेता को श्रद्धांजलि दी और नारे लगाए- ” हिंदू-मुस्लिम एकता की जय”.
1892 में पुणे में बाला गंगाधर तिलक मोहर्रम के जुलूस में भी शामिल हुए थे (तस्वीर के बीच में नीचे की तरफ़ तिलक)

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