धर्म

अल्लाह को पुकारो चाहे सख़्ती में चाहे आराम में : जीवन में दुआ का स्थान व मक़ाम

एक शोध व अध्ययनकर्ता का कहना है कि इंसानों को जब आघात पहुंचता है तो उनकी समझ में आता है कि केवल अल्लाह निर्धारित व फ़ैसला करने वाला है, सब कुछ उसी के हाथ में है तो वे सब अल्लाह की शरण में जाना चाहते हैं परंतु जब वे आराम और नेअमत में होते हैं तो वे अल्लाह के अलावा भी दूसरों की भूमिका को मानने लगते हैं मगर वे इस बात को भूल जाते हैं कि समूचे ब्रह्मांड का संचालन केवल अल्लाह के हाथ में है।

अल्लाह को केवल सख़्ती में नहीं बल्कि आराम के दिनों में भी याद करना चाहिये। पवित्र क़ुरआन और इस्लामी शिक्षाओं में दुआ करने पर बहुत बल दिया गया है। दुआ के स्थान और इंसान की रूह व आत्मा पर उसके प्रभाव के संबंध में समाचार एजेन्सी मेहर ने Institute of Scientific Research Institute of Culture and Thought of Islam के एक सदस्य डॉक्टर मोहम्मद आबेदी से वार्ता की है।

यहां पर आप पार्सटुडे पत्रिका के कुछ चुनिंदा भाग को पढ़ेंगे।

इंसान की रचना इस प्रकार से की गयी है कि हर इंसान को अपनी व्यक्ति और सामाजिक ज़िन्दगी में यहां तक कि तन्हाई की ज़िन्दगी में भी बंद गली का सामना होता है और न चाहते हुए भी वह अल्लाह की शरण में जाता है और उसे पुकारता है। यानी दुआ समस्त इंसानों के मध्य एक समान व प्राकृतिक ज़रूरत है।

अलबत्ता यह संभव है कि दुनिया की मोहमाया में पड़े होने के कारण इंसान को यह ज़रूरत दिखाई न पड़े परंतु जब कुछ घटनायें घटती हैं और इंसान अपनी मुश्किलों व समस्याओं के समाधान के लिए धन-दौलत, ताक़त और अपनी शोहरत आदि सबका प्रयोग करता है फ़िर भी कोई भी चीज़ इंसान की मदद नहीं कर पाती हैं तो उसकी आंखों पर पड़े पर्दे हट जाते हैं तो इंसान दोबारा अल्लाह की ओर ध्यान केन्द्रित करता है और अपने पालनहार की शरण में चला जाता है।

पवित्र क़ुरआन की आयतों के अनुसार अंतिम क्षणों में इंसान का ध्यान इस ओर जाता है कि वह अल्लाह की शरण में जाकर स्वयं को बचा सकता है और इंसान को चाहिये कि वह कभी भी यहां तक कि अपनी दिनचर्या में भी अल्लाह को न भुले और व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक जीवन में उसके जो आदेश हैं उनकी अवज्ञा न करे।

अल्लाह क़ुरआन में कहता है कि जब इंसान को कुछ नुकसान पहुंचता है तो वह अपने पालनहार को बुलाता है और उसकी ओर लौट आता है मगर जब अल्लाह उसे कोई नेअमत प्रदान करता है तो वह उस चीज़ को भुल जाता है जिसके कारण वह पहले अल्लाह को बुलाता था और अल्लाह के लिए शरीक व सहभागी क़रार देता है।

कुछ मिसालों की समीक्षा करते हैं। पहली मिसाल जब वह समुद्र में नाव पर सवार होता है। समुद्र वह पहली जगह है जब इंसान नाव में सवार होता है तो उसे इस बात का आभास होता है कि वह कुछ भी नहीं है वह कुछ नहीं कर सकता। उसे अपनी कमज़ोरी का आभास होता है। अल्लाह उस समय इंसान का ध्यान इस ओर दिलाता है कि दुआ हर इंसान की प्राकृतिक ज़रूरत है परंतु बेहतर यह है कि वह इस साधन व हथियार का प्रयोग केवल सख़्ती के समय न करे बल्कि हर हालत में अल्लाह को याद रखे।

इसी आधार पर अल्लाह पवित्र क़ुरआन में कहता है कि जब वे नाव पर सवार हो जाते हैं तो पूरी निष्ठा और सच्चे दिल से अल्लाह को बुलाते हैं परंतु जब अल्लाह उन्हें समुद्र के किनारे पहुंचा देता है और उन्हें मुक्ति दे देता है तो वे फ़िर मुश्रिक हो जाते हैं।

दूसरी मिसाल जब इंसान को समुद्र की ठाठें मारती लहरों का सामना होता है तब उसे अल्लाह की याद आती है। महान ईश्वर पवित्र क़ुरआन में कहता है कि जब लहरें उन्हें बादलों की तरह ढ़क लेती हैं तो वे अल्लाह को सच्चे दिल से बुलाते हैं मगर जब उन्हें अल्लाह समुद्र के किनारे पहुंचा और नजात दे देता है तो उनमें से कुछ सीधा व संतुलित रास्ता अपनाते हैं जबकि कुछ दूसरे भुल जाते और कुफ्र का रास्ता अपनाते हैं मगर हमारी आयतों को नाशुक्रे लोगों के अलावा कोई इंकार नहीं करता।

पवित्र क़ुरआन बल देकर कहता है कि अगर इंसान अल्लाह को बुलायेगा तो उसे जवाब मिलेगा। महान ईश्वर पवित्र क़ुरआन में कहता है कि कौन है जो परेशानहाल की दुआओं को सुनता है जब उसे बुलाता है और उसकी समस्याओं व मुश्किलों को दूर कर देता है।

यह पवित्र क़ुरआन की वह आयत है जिसे हम सबने सैकड़ों बार पढ़ा है विशेषकर मस्जिद आदि में। आमतौर पर यह आयत उस वक़्त पढ़ी जाती है जब कोई बीमार होता है और उसकी हालत अधिक ख़राब होती है तो उसकी शिफ़ा के लिए यह आयत पढ़ी जाती है। अगर कोई इंसान, कोई विभाग, कोई देश या कोई व्यक्ति अपने व्यक्तिगत, राजनीतिक, शैक्षिक और आर्थिक जीवन में अल्लाह से ग़ाफ़िल व निश्चेत रहता है परंतु अगर अंतिम क्षणों में उसका ध्यान अपने पालनहार की ओर हो जाता है तो अल्लाह उसे उसकी हाल पर नहीं छोड़ता है। यह अल्लाह की रहमत और मेहरबानी का शिखर है कि अंतिम क्षणों में भी इंसान उसे पुकारता है तो उसकी आवाज़ पर लब्बैक कहता है और कहता है कि उसे उसकी हाल पर नहीं छोड़ेगा।

जो आयतें बयान की गयीं उन सबमें एक महत्वपूर्ण बिन्दु है और वह तौहीद अर्थात एकेश्वरवाद है। यानी इस बात को समझ जाना कि केवल महान ईश्वर की इच्छा और इरादे के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहिये और महान ईश्वर बारमबार बल देकर कहता है कि इस बात की तरफ़ तुम्हारा ध्यान रहे और विश्वास रखो कि हर चीज़ हमारे हाथ में है और एक पत्ता भी मेरे आदेश के बिना ज़मीन पर नहीं गिरता और अगर किसी के हाथ में कोई ताक़त देखते हो तो वह भी मेरे आदेश से है और अगर मैं न चाहूं तो आग के अंदर जलाने की ताक़त नहीं पैदा होगी और न ही समुद्र के अंदर डूबाने की शक्ति पैदा होगी और न इंसान किसी हथियार का प्रयोग कर सकेगा। यहां तक कि महान ईश्वर पवित्र क़ुरआन में पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहता है कि हे पैग़म्बर जान लो कि जब आप तीर फ़ेकते हैं तो मेरे आदेश से फ़ेंकते हैं।

सारांश यह कि इंसान को ज़िन्दगी के समस्त मामलों में अल्लाह के आदेशों के अनुसार चलना चाहिये और यह नहीं सोचना चाहिये कि कोई भी अल्लाह के अलावा स्वतंत्र रूप से कुछ कर सकता और अल्लाह के सिवा कोई भी शरण नहीं है।